Tumgik
warid-says · 3 years
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ग़ज़ल जो पहले नज़्म थी..
ग़ुलाम रुहें ©
सोचता हूँ कि इंसां क्या हो गर रूहें बे-लिबास हो
सब नियत-ए-परस्तार-ए-जिस्म जैसे बद-हवास हो
वो निकलते हैं आराइश-ए-सूरत पर बड़े ख़ुश एहसास हो
गर ये होता ज़माना बे-नज़र तो ये सूरतें बे-क़यास हो
क्या करता ऐ फ़ानी गर तू जनीन-ओ-आल न होता
गर हो वजूद पोशीदा लाफ़ानी, तेरी ज़िंदगी मूरतास हो
अपनी फ़हम उल्फ़त दीवानगी वो अक्सर ग़ुलाम कर देता है
जैसे वाल्दीन निगराँ जागीरदार की, वो फ़सल बेजा उदास हो
कौन रौंदता है तेरे जज़्बात वल्दियत का वास्ता देकर
जो ग़रज़-परस्त नज़र हो तो रूहें बे-जिस्म, ना-शनास हो
वस्ल से दूरी कब तलक, राहें अधूरी कब तलक
आ मेरी रहगुज़र में तू, आ मेरे आसपास हो
क़यामत हो कि कुफ़्र हो जो भी हो दुनिया जो कहे
हर नज़र को मेरे हमनफ़स, तेरा हीं इल्तिमास हो
एहतराम क्यूं हो जिस्मों का, रूहें हीं मख़्फ़ी क्यूं रहें
क़ानून ये भी पास हो, किसी को न दाग़-ए-यास हो
आज़ाद कर रूहों को, जिस्मों का कम-सिपास हो
चैन पड़ जाए "वारिद" तुझे, ये ज़िंदगी ख़ुश-लिबास हो
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warid-says · 3 years
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غلام روح ©
وہ نکلتے ہیں آرائش صورت پر بڑے خوش احساس ہں
گر یہ ہوتا زمانہ بے نضر تو یہ صورتیں بے قیاس ہو
کیا کرتا اَے فانی گر توٗ جنینوآل نہ ہوتا
گر ہو وجود پوشیدہ لافانی، تیری زندگی مورطاس ہو
اپنی فہم الفت دیوانگی وہ اکثر غلام کر دیتا ہے
کہ والدین نگراں جاگیردار کی وہ فصل بےجا اداس ہو
کون روندتا ہے جزبات تیرا ولدیت کا واسطہ دے کر
جو غرض پرست نضر ہو تو روحیں بے جسم، نا شناس ہو
وصل سے دوری کب تلک، راہیں ادْھوری کب تلک
آ میری رہ گزر میں توٗ، آ میرے آس پاس ہو
قیامت ہو کہ کفر ہو جو بھی ہو دنیا جو کہے
ہر نضر کو میرے ہم نفس تیرا ہی التماس ہو
کہ احترام کیوں ہو جسموں کا، کہ روحیں مخفی کیوں رہیں
قانون یہ بھی پاس ہو، کسی کو نہ داغ یاس ہو
آزاد کر دے روحوں کو، جسموں کا کم سپاس ہو
چَین پڑ جاۓ "وارِد" توجھے، یہ زندگی خوش لباس ہو
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warid-says · 3 years
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.. ग़ज़ल होने से पहले की नज़्म
ग़ुलाम रुहें ©
कभी सोचता हूँ मैं कि रूहों ने
गर जिस्म न पहनी होती तो क्या होता
उनकी फ़हम उल्फ़त दीवानगी होती
पर करम न कोई अदायगी होती तो क्या होता
कोई तख़लीक़ी न होता तो क्या होता
कोई जनीन जो न होता तो क्या होता
जिस्में वालदीन न होती तो क्या होता
जिस्मेंं गर आल न होती तो क्या होता
सब धूप-से आते, ज़ी कर निकल जाते
एक रूह पर दूसरे का ज़ोर न होता
रिश्ते रूहों की हीं तरह आज़ाद होते
न बंधन होता न किसी हाथ में डोर होता
फिर सोचता हूं ये लिहाज़तन जरूरी क्यूं है
कि रूहें जिस्मों का एहतराम कर ले
कि किसने फ़ानी को इजाज़त दी है
वो एक लाफ़ानी को ग़ुलाम कर ले
गर रूह से नाइंसाफ़ी हमें
न सिखायी जाती तो क्या होता
गर होते हम थोड़े और इंसां
तो सोचो माजरा क्या होता
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warid-says · 3 years
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उसमें खुद देखा है
अकेले कमरे में फर्श पर बैठ
दीवार से पीठ टिकाए
झरोखे के पार शून्य में ताकती आंखें
किसी खयाल में डूबता मन
और होंठों पे रेंगती हल्की मुस्कान
तभी अपने अक्स को भी वहीं कहीं
खयालों में सरगोशी करते देखा है
मैने देखा है अक्सर रसोईघर में
खाना पकाते गुनगुनाते हुए
बरबस ही एक याद-सी आती हो
और किसी के टोकने पर
जैसे तंद्रा कोई टूटी हो
तब जोर से खिलखिलाते उसे
और वहीं उसी हंसी में कहीं
मैने खुद को भी देखा है
जब अंधेरा गहरा होता है
जब सारा हीं जग सोता है
बिस्तर पर अधलेटे तब
किताबों के पन्ने पलटते
नींद से बोझिल होती आखें
जम्हाना, कम्बल में सिमट जाना
फिर जाने क्या सोच हंसकर
तकिए में मुंह छिपाना भी
तब तकिए के इस पार कहीं
मैने खुद को जैसे खड़ा देखा है
कहीं नहीं है या कि है, पता नहीं
थी नहीं या गुम है कहीं, पता नहीं
हकीकत है या तसव्वुर कोई, जो भी है
उसकी हरकतों में खुद को जैसे
मैंने देखा है
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warid-says · 3 years
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रात की चुप्पी
शोर से भागी हुई एक चुप्पी
रोज हीं रात चली आती है
बिना किसी आहट के दबे पांव
सिरहाने सो जाती है
नवजात शावक की मानिंद
मासूम बच्चे की तरह आंखें मूंद
हाथ पैर सिकोड़ कोने में दुबक कर
पर गहराने लगता है जब
बेसुधी का आलम, तब
तकिए से सरक कर चुपके से
चली आती है ज़ेहन में
और खोल देती है वही
पुरानी मैली-सी गठरी जिसमें
कुछ लम्बे, कुछ छोटे से लम्हें हैं
मौजों पर सजी कामनाएं हैं
रात की स्याही और मचलते जज़्बात
पिघलता हुआ वजूद है
ओस की शक्ल ओढ़े श्रमजल
और ज्वार का बेकाबू उफान
थोड़ी तड़प थोड़ा सुकून
सब सौंपकर निकल जाती है कमरे से
उसी तरह दबे पांव जैसे आयी थी
बे-आवाज, बिना आहट के
और रह जाता है इक नक्श
जो सबूत उसके होने का
उसके आने तलक देता है
वो शोर से भागी हुई एक चुप्पी थी
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warid-says · 3 years
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अशांत मन ©
शाख़ से उतर कभी
हथेलियों पे गिर ज़रा
शब कई गुज़र गए
देख मैं वहीं खड़ा
रूका हुआ था पाख पर
वो वक़्त क्यों ढला नहीं
आए गए गुस्ताख़ मौसम
नज़रों में अक्स त्यों पड़ा
विरक्तता में झांकता
मरु की धूल फांकता
है मन सुकूं तलाशता
वो फ़लक की ये धरा
कभी तो तू परवाज़ कर
सभी अना को हार कर
कि परों की ख़न्क बाद से
जी जाए मन तृष्णार्त ज़र्रा
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warid-says · 3 years
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हमनफ़स समंदर ©
कभी मंदर कभी बेतहाशा लगता है
समंदर मुझे तू भी प्यासा लगता है
बारहा मौजों में आता है, लौट जाता है
उतरता हर उफान तेरा रूआंसा लगता है
तू भी गुज़र रहा पोशीदा सहराओं से क्या?
हर सूरत में तेरा मिज़ाज शनासा लगता है
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warid-says · 3 years
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धरती की सांझ ©
टहनियों पर अलसाए-से,
धूल-धूप से सने पत्ते
दमक में कुम्हलाए-से,
ऊँघते अनमने पत्ते
तृण-वन के सभासदों से,
छोटे-मंझोले आत्मजों से
झुक मुस्काकर बतियाए
देखो साँझ बेला आ चली
कुछ उमस में उकताए थे
कुछ छाँव में सुस्ताए थे
क्षुधा-भोग की खोज में
जो कहीं दूर से आए थे
दरिया दरख़्त नापते
पखेरू घोंसलों को भागते
अभ्र-बाट पर चहचहाए
चलो साँझ बेला आ चली
नदी तट से दूर ऊपर
गर्द उठते ख़ाक-पथ पर
कर्मस्थलों से घर को जाते
चर-विचर उसी दर को जाते
जीवन-यात्रा में गतिशील
सहचर हो पशु औ' कबील
मन ही मन हर्षाए
अब तो साँझ बेला आ चली
झूरमुटों को लांघकर
कुछ क्षण दिवा से मांगकर
मंद लहरों पर झूमती
सँझायी किरणें सूर्य की
धरती के इस ढंग को
दिवा के अंतिम रंग को
देखे और ललचाए
कैसी साँझ बेला आ चली
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warid-says · 3 years
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Never mess with someone who is not afraid to be alone. You will lose every single time.
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