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#वशिष्ठ
aryaraj08 · 2 years
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#गुरू ही #ब्रह्मा गुरु ही #विष्णु गुरू में सारे #जग समाये, #श्रीराम अधूरे #वशिष्ठ बिन, #कृष्ण संदीपन बिन #बौराये... . . . . . . . . .. . . . .. . . .. . #happybirthday @happy_birthday_status @acharya_balkrishna @swaamiramdev #jadibuti #ACHARYABALKRISHNA Acharya Bal Krishna #happybirthday @aryaraj08 https://www.instagram.com/p/CgzwE-cvq3Y/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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bhartiblogger · 2 years
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rudrjobdesk · 2 years
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Review: Your Honour Season 2 का पहला सीजन बेहतर था
Review: Your Honour Season 2 का पहला सीजन बेहतर था
Review: जब आप एक वेब सीरीज देखते हैं जिसमें आप एक जज को कानून की सीमाओं के परे जा कर काम करते देखते हैं तो पहले तो लगता है कि ये किरदार ही गड़बड़ है लेकिन धीरे धीरे ये साफ़ होता है कि जज साहब सिर्फ पुत्र मोह में ये सब किये जा रहे हैं. पुत्र मोह में धृतराष्ट्र मानसिक रूप से भी देखने से बाधित हो गए थे फिर ये तो एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज हैं. योर हॉनर के दूसरा सीजन हाल ही में सोनी लिव पर रिलीज हुआ…
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bhaktibharat · 1 month
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🐚 आमलकी एकादशी व्रत कथा - Amalaki Ekadashi Vrat Katha
धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले: हे जनार्दन! आपने फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का सुंदर वर्णन करते हुए सुनाया। अब आप फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए।
[बृज मे रंगभरनी एकादशी, श्रीनाथद्वारा मे कुंज एकादशी तथा खाटू नगरी मे खाटू एकादशी भी कहा जाता है]
श्री भगवान बोले: हे राजन्, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा इसके प्रभाव से एक हजार गौ दान का फल प्राप्त‍ होता है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। हे राजन्, अब मैं आपको महर्षि वशिष्ठ जी द्वारा राजा मांधाता को सुनाई पौराणिक कथा के बारे मैं बताता हूँ, आप इसे ध्यानपूर्वक सुनें।..
..आमलकी एकादशी व्रत कथा को पूरा पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें 👇 📲 https://www.bhaktibharat.com/katha/amalaki-ekadashi-vrat-katha ▶ YouTube https://www.youtube.com/watch?v=m3HmC1h6YWg
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🚩 फाल्गुन मेला - Falgun Mela 📲 https://www.bhaktibharat.com/festival/falgun-mela
🐚 एकादशी - Ekadashi 📲 https://www.bhaktibharat.com/festival/ekadashi
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jayshriram2947 · 10 months
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ll शिव पंचाक्षरि स्तोत्रम् ll
ॐ नमः शिवाय शिवाय नमः ॐ
ॐ नमः शिवाय शिवाय नमः ॐ
नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय
भस्मांगरागाय महेश्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय
तस्मै "न" काराय नमः शिवाय ॥ 1 ॥
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय
नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय
मंदार मुख्य बहुपुष्प सुपूजिताय
तस्मै "म" काराय नमः शिवाय ॥ 2 ॥
शिवाय गौरी वदनाब्ज बृंद
सूर्याय दक्षाध्वर नाशकाय
श्री नीलकंठाय वृषभध्वजाय
तस्मै "शि" काराय नमः शिवाय ॥ 3 ॥
वशिष्ठ कुंभोद्भव गौतमार्य
मुनींद्र देवार्चित शेखराय
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय
तस्मै "व" काराय नमः शिवाय ॥ 4 ॥
यज्ञ स्वरूपाय जटाधराय
पिनाक हस्ताय सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगंबराय
तस्मै "य" काराय नमः शिवाय ॥ 5 ॥
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिव सन्निधौ
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥
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teekaramahirwar1 · 3 months
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किसके श्राप से #श्रीराम को पूरा जीवन पत्नी के वियोग में रहना पड़ा था ?
A) राजा बाली
B) नारदजी
C) वशिष्ठ ऋषि
D) दुर्वासा ऋषि
#GodMorningTuesday
अपना उत्तर हमे कमेंट बॉक्स में बताए। #PollOfTheDay
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indian-mythology · 1 year
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माथुर ब्राह्मणों के गोत्र 7 हैं। ये प्राचीन सप्त ऋषियों की प्रतिष्ठा में उन्हीं के द्वारा स्थापित हुए थे। इनकी ऐतिहासिकता संदेह से परे है। इन सात गोत्रों के गोत्रकार ऋषियों की परम्परा में नाम इस प्रकार हैं।
दक्ष गोत्र
कुत्स गोत्र
वशिष्ठ गोत्र
भार्गव गोत्र
भारद्वाज गोत्र
धौम्य गोत्र
सौश्रवस गोत्र
दक्ष गोत्र परिचय
दक्ष गोत्र प्रजापति ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में सर्व प्रतिष्ठित प्रजापतियों के पति (10 ब्रह्मपुत्रों की धर्म परिषद के अध्यक्ष) रूप में सर्वोपरि सम्मानित थे। 9400 वि0पू0 की ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि के केन्द्र ब्रह्मपुर्या माथुर महर्षियों के क्षेत्र मालाधारी गली ब्रह्मपुरी पद्मनाभ स्थल के ये अधिष्ठाता थे।
आदि प्रयागतीर्थ मथुरा के उत्तरगोल सूर्यपुर में प्रजापत्य याज्ञ करके प्रजापति विभु स्वयंभू ब्रह्मदेव ने इन्हें समष्ट वेद-वेदज्ञ यज्ञ कर्मकर्ता प्रजापितयों का अधिष्ठाता नियुक्त किया था। ऋग्वेद में इनके मन्त्र हैं। देवों से पूजित होने और बड़े-बड़े यज्ञों, संस्कारों, धार्मिक कृत्यों के सर्बश्रेष्ठ नियन्ता होने के कारण ये अपार विद्याओं के समुद्र तथा अपार द्रव्य राशि के स्वामी थे। इनका अपना विशाल आश्रम मथुरा के सुयार्श्व गिरि पर था ऐसी हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है।
इन्होंने अपने दक्षपुर (छौंका पाइसा) में महासत्र का आयोजन करके माथुर महर्षियों की ब्रह्मविद्या से अर्चना करके समस्त सुपार्श्व गिरि को सुवर्ण से आच्छादित कर उसकी शिखरों को रत्नों से देदीप्यमान कर उस समय (9400 वि0पू0) एक मात्र कर्मनिष्ठ लोकवंद्य देवपूजित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों को दान में अर्पित कीं और उन्हें यह निर्देश दिया कि वे अनकी प्रदत्त पुण्य भूमि को खण्ड-खण्ड करके कभी विभाजित न करें उसका सम्मिलित रूप से उपभोग करते रहें।
उनके इस निर्देश पर भी उन ब्राह्मणों के वंशजों ने लोभ वश स्वर्ण बटोरकर उस शोभायमान पर्वत की श्री हीन करके कई खण्डों में विभाजित कर डाला। इस अनैतिक आचरण से खिन्न और कुपित होकर महामान्य दक्ष ने उन्हें शाप दिया कि वे लालची, कलही, भिक्षुक और कुल मान्यता से शून्य प्रतिष्ठा हीन हो जायेगें। महापुण्य दक्ष के सुपाश्व के विभिन्न शिखिर खण्ड मथुरा में आज भी पाइसा नामों से (गजा पाइसा, नगला पाइसा, शीतला पाइसा, कुत्स पाइसा, छौंका पाइसा) नामों से प्रसिद्ध हैं ध्यान देने की बात हे कि पाइसा शब्द का प्रयोग भारत के और किसी भी स्थान में कही भी प्रयुक्त नहीं है।
दक्ष यज्ञ- प्रजापति दक्ष ने अनेक बहु दक्षिणा युक्त यज्ञ किये। इनमें वह यज्ञ सर्वाधिक विख्यात है जिसमें इनका कन्या सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राणों की आहुति दी तथा भगवान यछ्र के गण रूप से वीरभद्र द्वारा देवों और ऋषियों का महाप्रतारण हुआ। पुराणों के अनुसार महात्मा दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्यायें हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर होने से महान गौरव पद को प्राप्त हुए।
उन्होंने स्वाहा पुत्री अग्निदेव प्रमथ माथुर को दी जिससे वे माथुरों के गोत्रकार बनकर मातामह बने। उन्होंने स्वधा नाम की पुत्री पितगों को दौं अत: पितृगण भी उनकी जामाता बनकर श्राद्धों में आदर पाते रहे। उनको उबसे छोटी स्नेहमयी लाडली पुत्री सती थी जो त्र्यंवक रूद्रदेव को ब्याही गयी। इतने प्रधान देवों का पितृ तुल्य श्वसुर पदधारी होने से दक्ष को महाअभियान हो गया। एक वार ब्रह्माजी की सभा (ब्रह्म कुण्ड गोवर्धन शिखर) पर उनके पहुँचने पर सभी देवों ने उन्हें नमन और अभ्युत्थान दिया परन्तु भगवान रूद्र गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे इससे उन्होंने रूद्र द्वारा अपना अपमान किया जाना अनुभव किया और प्रतिकार रूप में एक विशाल यज्ञमूर्ति प्रभविष्णु की अर्चना युक्त जो अष्टभुज धारी महाविष्णु थे एक यज्ञ का आयोजन मथुरा में यमुना तट पर कनखल तीर्थ में आयोजन किया।
 इस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अहंकारवश रूद्र को आमन्त्रित नहीं करते हुए यज्ञवेदी पर उनका देव आसन भी नहीं स्थापित किया। देवी सती यज्ञ में बिना बुलाये ही माता पिता के स्नेह से आतुर होकर पधारीं और यज्ञ मण्डप में भगवान रूद्र का आसग न देख महाक्षुब्ध होकर यज्ञाग्नि के विशाल कुण्ड में दलांग लगाकर आत्माहुति दे दी। तब रूद्र भगवान की भृकुटी भंग से उनके गण वीरभद्र (भील सरदार) ने भूत सेना लेकर यज्ञ का विध्वंश किया जिसमें पूषा, भग, भृगु आदि सभासद ताड़ित और दण्डित हुए और अन्त में शिरच्छेद के बाद अजामुख दक्ष भगवान रूद्र कों शरणागत हुआ। भगवान रूद्र की यह एतिहासिक घटना 9358 वि0पू0 की है तथा ब्रह्मर्षि देश के मथुरा सूरसेनपुर में घटित हुई । विद्वान मूल तथ्यों से भटक जाने के कारण हरिद्वार इसे या अन्यत्र कहीं खोजते-फिरते हैं जबकि हरिद्वार (गंगाद्वार) भगीरथ के गंगावतरण के समय 4771 वि0पू0 में स्थापित हुआ।
मथुरा में यमुना के तठ पर अभी भी कनखस तीर्थ एक अति पुरत्तन पुराण वर्णित तीर्थ मौजूद है, यही समीप में भगवान रूद्र का त्र्यंवक (तिंदुक) तीर्थ तथा वीरभद्र गणों और मरूतों के युद्ध का स्थल मरूत क्षेत्र (मारू गली) सती मांता का पुरातन मठ (दाऊजी मन्दिर जहाँ क्षुरधारी मरूत ढाल बरवार वारे हनुमान के नाम से स्थित हैं। मथुरा में ही भूतनगर (नगला भूतिया) वीरभद्रेश्वरूद्रदेव , दक्षपुरी छौंका पाइसा तथा उसके निवासी दक्ष गोत्रिय माथुर छौंका वंश (महाक्रोधी , अभिमानी) अभी स्थित हैं। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गयी है।
दक्ष वेद-प्रशस्त देव सम्मानित राजर्षि थें। इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग्0 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरूण किये जाने का कथन ऋग्0 10-143-1 में है। वे दक्ष स्मृति नाम के धर्मशास्त्र के कर्ता है जिसमें आश्रम धर्म , आचार धर्म , आशीच , श्राद्ध, संस्कारों, व्यवहार धर्म तथा सुवर्ण दान के महान्म के प्रकरण कहे गये हैं।
मन्वन्तरों में समयों में सप्तऋषियों में आद्य स्थापना
मानव वंशों को "स्वस्वं चरित्र शिक्षेरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:" का निर्णायक उद्घघोष प्रवर्तित करने वाले स्वायंभू मनुदेव के समय के सप्तऋषियों की धर्मपरिषद में माथुरों के आदि महापुरूषों में दक्ष आदि का प्रमाण है।
1- स्वायंभूमनु का मन्वन्तर काल 9000 वि0पू0 चैत्र शुक्ल 3 के समय उनके सप्तऋषि मण्डल में
1. आँगिरस, 2. अत्रि, 3. क्रतु, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. मरोचि, 7. वशिष्ठ समाहित थे।
इनमें से ब्रतु, पुलस्त्य , पुलह के वंश आसुरी सम्पर्क में आकर ब्रह्मर्षि देश से बाहर उत्तर, पश्चिम भूखण्डों एशिया यूरोप सुदूर दक्षिण आदि में चले गये। आँगिरस (कुत्स) , दक्ष (आत्रेय वंश) मरोचि (कश्यप धौम्यवंश) वशिष्ठ (वेदव्यास वंश) मुरा मण्डल में अनु राजधानी में रहे तथापि देव, दानव, आसुर पोरोहिव्यधारी इन वहिर्गत महर्षियों को भी विश्व संगठन प्रवर्तक मान मनु महाराज ने इन्हें मण्डल बाह्य नहीं किया।
2- स्वारोर्चिष मन्वतर- 9962 वि0पू0 भाद्र पद कृष्ण 3 के प्रवर्तन समय के सप्त ऋषियों में माथुर वंश के भार्गव गोत्रिय और्व तथा आंगिरस वंशज वृहस्पति देव, आत्रेय पुत्र निश्च्यवन अन्य 4 महर्षियों के मण्डल में स्थापित हुए। 3- उत्तम मन्वर - (8530 वि0पू0 पाल्गुन कृष्ण 3 को स्थापित) मन्वतन्र के सप्तऋषि मण्डल के वशिष्ठ वंशों माथुर महर्षि ऊध्ववाहु शुक सदन सुतया आदि सम्मानित हुए थे। 4- तामस मनु क मन्वंतर - (8360 वि0पू0 पौष शुक्ल 1 में) माथुरों का अग्नि (प्रमथ) वंश चैत्र ज्योर्तिधीम धात् आदि सदस्यों के रूप में स्थापित था। 5- रैवत मन्वंतर - (8186 वि0पू0 आषाढ़ शुक्ल 10) स्थापित में सप्तर्षि मण्डल में माथुर महामुमि वशिष्ठ के वंशज सत्यनेत्र, अर्ध्वबाहु, वेदबाहु, वेदशिरा आदि धर्म प्रवर्तक थे। 6- चाक्षुष मन्वंतर - (7428 वि0पू0 माघ शुक्ल 7) प्रवर्तित के सप्तर्षि मण्डल में भगवान आदि नारायण (गताश्रम नारायण) के अशंभूत्त विराट मत्स्यपति ब्रजमण्डल संस्थापक भगवान विराज, श्रीयमुना जी के पिता विवस्वान सूर्य परिवार के विवस्वंतदेव, सहिणु सुधामा, सुमेधा आदि माथुर मुनीन्द्र लोकधर्म प्रतिपालक रहे। इस मन्वन्तर में ही बैकुण्ठलोक के स्थापक भगवान बैकुण्ठनाथ (बैकुण्ठतीर्थ मथुरा) तथा विरजरूप में प्रभु दीर्घ विस्णु के लोक संस्थापक अवतार हुए। 7- वेवस्वत मन्वंतर - (6379 वि0पू0 श्रावण कृष्ण 8) प्रवर्तित के महाविश्व विस्तृत सप्तऋषि मण्डल में माथुर ब्राह्माणों के पूजनीय पुर्व पुरूष अत्रि (दक्ष गोत्र) , कश्यप (धौम्य पूर्वज) , यमदंग्नि (भार्गव गोत्र) परशुराम अवतार के पिता वशिष्ठ (महर्षि वेदव्यास के पूर्वज ) विश्वामित्र सौश्रवस गोत्र पूर्व पुरूष ) देवपूजित विश्वधर्म के संचालक थे। केवल गौतम महर्षि जो गौतम आश्रम (गोकर्ण) टीला कैलाश) पर रहते थे आंगिरसों से विरोध उत्पन्म हो जाने के कारण भगवान माहेश्वर रूद्र की अनुज्ञा से मथुरा त्याग कर कुवेरबन (वर्तमान वृन्दावन) में (गौतमपारा) बसाकर जाकर रह गये। इनके वंशज गौतम ब्राह्मण अभी भी इस स्थान पर बसते हैं। इन ऋषियों के वंशधर बाद के व्यतीत मन्वन्तरों में सप्तर्षि मण्डलों में भी स्थापिय रहे।
यह भी प्रमाणित तथ्य है कि इन सभी मन्वन्तरों की स्थापना आद्य मनु की पुरी मथुरा सूरसेनपुरी में ही परम्पराबद्ध रूप से होती रहीं और ये ब्रह्मर्षि देश के पवित्र देवक��षेत्र में जहाँ-तहाँ स्थापित हो धर्म प्रशासन चलाते रहे। इस प्रकार परम सुनिश्चित सुपुष्ठ इतिहास परम्परा और शास्त्र प्रमाण से माथुर ब्राह्मणों की प्राचीनता और पदगरिमा की प्रशस्त स्थिति स्पष्ट है। अनेक युगों में ऋषियों की उपस्थिति
प्राय: यह शंका उठाई जाती है कि देव और ऋषि एक ही रूप में प्राय: प्रत्येक काल और युग में उपस्थित दीखते हैं जिससे उनकी आयु और जीवन स्थिति में अति असंवद्धता प्रगट होती है। इस सन्दर्भ में शास्त्र पद्धति की एक महत्वपूर्ण बात हमें जान लेनी चाहिये। भारतीय परम्परा के संस्थापकों ने देवों ब्रह्मपुत्र ऋषियों के लिये अजरामर रूप में बने रहने के लिये अमरत्व की एक विशेष प्रक्रिया स्थपित की थी जिसके अनुसार जिन देवों और ऋषि-महार्षियों को त्रिकाल व्याप्त पदों पर प्रितष्ठित किये गये थे उनके वे पद पीठ आसन या गादी नाम से स्थिर थे। ब्रह्मा, इन्द्र , अग्नि, वरूण , कुवेर, यम, सूर्य , चन्द, आदि देव कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु ये प्रतिष्ठा सपद थे। इन पदों पर एक व्यक्ति के पद मुक्त होने से तत्काल पूर्व ही दूसरे पदधारी की प्रतिष्ठा कर दी जाती थी जिससे साधारण प्रजा को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता था कि कौन पदधारी कब बदला। ब्रह्मा, इन्द्र, आदि अनेक हुए हैं इसी प्रकार कश्यप , अत्रि , वशिष्ठ, अंगिरा , नारद, भृगु, दक्ष आदि बहुत से हुए हैं वे सभी अपने पदों पर आसनारूढ या पदारूढ होते रहे हैं। इसी कारण से वेदों-पुराणों में किसी देवता या महर्षि का बृद्धता से लाठी टेककर चलना या उनकी मृत्यु होने का कथन नहीं है। वे प्राय: सामर्थ्यशाली दशा में ही पद मुक्त होकर उत्तर ध्रुव के महाप्रयाण लोक को प्रस्थान कर जाते थे। इस तथ्य का आधुनिक काल में प्रमाण जगद्गुरु शंकराचार्य की पाद पीट है जहां शंकराचार्य देव आदि स्थापना से अभी तक अजर-अमर बने विराजमान हैं। देवों, ऋषियों का प्रत्येक युग में एक उसी नाम से वर्तमान रहने का यही गूढातिगूढ रहस्य है जिसे हमें समझ लेना चाहिये।
दक्ष गोत्र के प्रवर - गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सन्मानित या यशस्वी पुरूष होते हैं वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के में गोत्रकार के अतिरकित और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के तीन प्रवर हैं। 1. आत्रेये 2. गाविष्ठर 3. पूर्वातिथि।
1. आत्रेय - महर्षि अत्रि के पुत्र थे। ये चन्द्र पुत्र अत्रि के छोटे पुत्र थे। महर्षि दक्ष के पुत्र न होने से इन्हें मानस पुत्र बनाया था तथा चन्द्रमा दत्तात्नेय के माह होने पर भी दक्ष वंश में चले जाने से इन्हें अत्रिवंश में नहीं गिना गया। ये वेदज्ञ विपुल यज्ञ कर्ता थे। मंटी ऋषि के के ये शिष्य थे तथा इनने वैत्तरेय संहिता का पद पाठ निर्धारण किया था। इनकी शास्त्रीय रचना आत्नेयी शिक्षा तथा आत्नेयी संहिता है। 2. गाविष्ठर - ये यज्ञ और वेद विद्या के महान आचार्य थे। समाइगय राजेश्वर वभ्रु के यज्ञों को इनने गृत्समद ऋषि के सा सम्पन्न कराये थे। 3. पूर्वातिथि - ये अत्रि कुल के महान आचार्य थे। इनका समय 8758 वि0पू0 है। भारतीय इतिहास काल में दक्ष दो हुए हैं। पहले दक्ष प्रजापति पुत्र दक्ष दूसरे प्राचेतस दक्ष। माथुरों के गोत्रकार प्रथम दक्ष है। दक्षों का वेद ऋग्वेद है। शाखा आश्वलायनी है तथा कुलदेवी महाविद्या देवी है। इनकी 4 अल्ल हैं 1. दक्ष, 2. ककोर, 3. पूरवे, 4. साजने। अल्ल उपजाति या आस्पद को कहते है। मनु ने इसे 'विख्याति' नाम दिया हे। आस्पद का अर्थ है आदर्शपद जो कुल के आदर्श कर्म या स्थान को संकेत करता है। जिस संज्ञा से समूह की लोक के ख्याति होती है उसे आख्यात या आख्या कहा जाता है। अलंकृति सूचक कुल नाम को अल्ह या अल्ल कहते है। दक्ष - ये दक्ष प्रजापति के पदासीन ज्येष्ठ (टीकैत) पुत्रों का वर्ग है। ये अधिक तर द्विजातियों के यज्ञोपवीत, विवाह , यज्ञ, अनुष्ठान आदि संस्कार कराते है। दक्ष ये मूल अल्ल है। 2. ककोर - ये यादवों की कुकुर शाखा के कुलाचार्य थे। इनका पुरा मथुरा में कुकुरपुरी , घाटी ककोरन के नाम से स्थित है। ये यादवों के पुरोहित होने से बड़े समृद्ध और सम्पत्तियों के स्वामी थे। कौंकेरा, ककोरी, कक्कु, कांकरौली, कांकरवार, ककोड़ा इनके विस्तार क्षेत्र थे। इस वंश में महापूजय श्री उजागरदेव जी वामन राजाओं के पुरोहित बड़े चौबेजी थे जो बादशाह अकबर के दरबार में सम्मान पाते थे। 3. पूरवे - ये सम्राट पुरूरवा च्रन्द्रवंशी के पुरोहित कुल में से हैं।
4. साजने या फैंचरे - ये साध्यजनों के पति गन्धर्वराज उपरिचर वसु (फैंचरी ब्रज) के पुरोहित थे। उपरिचर वसु बहुत शक्तिशाली सम्राट था। जिस इन्द्रदेव ने अपना ध्वज (झण्डा) देकर इन्द्र ध्वज पूजन की उत्सव विधि का उपदेश किया था। जिसे गंधारी केतुओं ने सद्दे और अलम के रूप में पूजना और उत्सव में प्रयुक्त तथा रण में फहराना सीखा। उपरिचय मगध देश के जरासंध परिवार का पूर्व पुरूष था तथा मत्स्य देश के राजा सम्स्या और वेद व्यास माता मत्स्यगन्धा सत्यवती भी इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। उसका राज्य गोपाचल क्षेत्र (ग्वालियर) में पिछोर पचाड़ गांग क्षेत्र में था। 5.सोखिया - मीठे वर्ग में यह अल्ल है जो सौंख खेड़ा में शौनक क्षेत्र में बसने से प्रख्यात हुई है। 6. जुनारिया - यह अल्ल अब देखने में नहीं आती है जान्हवी गंगा के प्रवर्तक जन्हु ऋषि (राजा) के प्रशासन क्षेत्र पुण्य क्षेत्र तीर्थों के केन्द्र में निवास करने से यह नाम प्रसिद्ध था जो जान्हवी के लोप होने के साथ ही अलक्ष हो गया है।
दक्ष का बहुत बड़ा परिवार था। प्रथम दक्ष (9400 वि0पू0) की 16 कन्याओं से प्रजापति ब्रह्मा, ऋग्वेद प्रतिष्ठापक अग्निदेव , पितृदेव तथा सती के पतिदेव रूद्र से प्राय: सभी देवों और ऋषियों के परिवार बढ़े और फंले। दूसरे प्रचेतरा दक्ष (7822 वि0पू0) में इसकी 60 कन्याओं में से ऋषि कश्यप आदि द्वारा सारे विश्व (यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका) के मानव वंश विश्व में विस्तारित हुए। अत: माथुरों का दक्ष वंश सारे संसार की जातियों और भूखण्डों का आद्य जनक और संस्कृति शिक्षक है ऐसा सिद्ध होता है।
कुत्स गोत्र
दक्ष के बाद कुत्स गोत्र सर्वाधिक व्यापक महान और पूजनीय सिद्ध होता है। कुत्स वंश के आद्य पुरूष महर्षि अंगिरा थे। जिनका वेदों पुराणों में सर्वाधिक वर्णन है। अंगिरा और भृगु आद्य अग्नि उत्पादक यज्ञ प्रवर्तक थे, तथा अग्निदेव (प्रमथो) के साथ समस्त विश्व में पर्यटन कर जंगली प्रजाओं को अग्नि का प्रयोग बताकर उन्हें सभ्यता के पथ में आगे बढ़ाने का इनने प्रयास किया था।
कुत्स महर्षि - आंगिरसों के कुल में उत्पन्न हुए थे। कुत्स का समय (6103 वि0पू0) है, तथा इनका मथुरा में आश्रम कुत्स सुपार्श्व श्रंग (कुत्स पाइसा या अपभ्रंश में कुत्ता पाइसा) कहा जाता है। कुत्स आचार शिथिल लोगों की कठोर शब्दों में भर्त्सना (कुत्सा) करते थे।, जो उनकी धर्म दृढ़ता और सावधान मनस्थिति का द्योतक था। इसी से आतंकित होकर प्रताड़ित जन उनके नाम को कुत्स कसे कुत्ता बनाने लगे। महर्षि कुत्स का एक और आश्रम गुजरात में भी था जिसे कुत्सारण्य की जगह ऐसे ही लोग 'कुतियाना गाँव' कहने लगे। कुत्स बड़े स्वरूप वान थे एक बार इन्द्र के महल में सजधज कर जाने पर इन्द्रानी इन्दे पहिचान न सकी क्योंकि ये वज्र धारथ कर इन्द्र के साथ संग्रामों में जाते थे। इन्द्र से इनकी ऐसी मित्रता थी कि एक बार सूर्य देव से इनका विरोध होने पर इन्द्र ने सूर्य के रथ का ए��� पहिया निकाल लिया तथा दूसरा भी निकाल कर इन्हें दे दिया 2। एक बार घर आने पर कहना न मानकर घर जाने को तैयार इन्द्र को इनने रस्सियों से बाँध लिया।3।। इनके वंशधर कौत्स ने अयोध्या सम्राट रघु (4181 वि0पू0) से अपने गुरु विश्वामित्र के शिष्य बरतन्तु (तेतूरा गाँव मथुरा) को गुरुदक्षिणा देने को 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा माँगी। रघु उस समय महान विश्वजित यज्ञ में सारा कोष दान कर चुके थे। कोषगारपति की सूचना से उद्विन्न हो रघु न कुवेर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। सायंकाल रथ आयुधों से सजवाया, प्रात: ही चढ़ाई करने वाले थे, तभी रात्रि में कुबेर ने स्वर्ण वृष्टि कर राज्य का पूरा कोष स्वर्ग से भर गया है। रघु ने हर्षित होकर कौत्स मुनि से सम्पूर्ण कोष का सुवर्ण ले जाने की प्रार्थना की परन्तु कौत्स ने कहा- "राजन् मैं 14 कोटि से एक कौड़ी भी ज़्यादा नहीं लूंगा। इतना ही तों मुझे गुरुदक्षिणा में देना है" राजा चंकित रह गया और आज्ञानुसार द्रव्य बरतन्तु मुनि के आश्रम में ऊँटों-गाड़ी , बैलों से पहुँचाया। माथुरों का 6000 वर्ष पूर्व असाधारण त्याग का वह एक सर्व पुरातन महान प्रमाण है।
कौत्स मान्धाता के गुरु थे। इनको भगीरथ ने अपनी कन्या दी थी ये बेद मंत्र कर्ता बड़े परिवार के स्वामी थे अत: इनके परिवार के 70 ऋषियों के नाम ऋग्वेद मण्डल में मंडल 1 3,5,810 में उपलब्ध है। इनके पुत्र अंगिरा के अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव, अश्विनौ, उषा , सूर्य रूद्र, रात्रि, सोम, भृगुगण आदि की स्तुति के मन्त्र ऋग्वेद मंडल 1 में है। इससे इनका इन सभी वैदिक देवों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनेक यज्ञों में उपस्थित होना तथा इन देवों से इन्हें प्रभूत दक्षिणा गो, स्वर्ण मिलने का संकेत मिलता है। कुत्स के 12 शिष्यों के मन्त्र ऋग् 5-31 में हैं। वेद वर्णन से ज्ञात होता है कि दस्युभज इनके इन्द्रादि द्वारा सम्मान से कुपित थे, अत: इनके परम मित्र इन्द्र ने इनकी रक्षा के लिये शुष्ण (सुसनेर) कुयव (जावरा) (सापर बड़ौद) वासी दस्युओं को मारकर उनके दुर्ग ध्वस्त किये थे। शत्रुओं द्वारा कूप में डाले गये इनका इन्द्र ने उद्धार किया 3। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कुत्स को वेतसु (तस्सोखर) तुग्र (ताल गाँव) , मधैम (दियानौ मथुरा) नाम के क्षेत्र अर्पण किये थे।
आंगिरस - आंगिरस वंश से इनकी परम्परा निरन्तर चलती है। इनका समय 9400 वि0पू0 चलता है। इनका आश्रम मथुरा में अम्बरीष टीले के सामने स्यायंभूमनु के सरस्वती तटवर्ती विन्दुसरोवर के यमुना तट समीप है जिसे प्राचीन बाराह पुराण के मथुरा महात्म में "आंगिरस तीर्थ लिखा है। प्राचीन ऋषियों में आंगिरसों का महत्व सर्वाधिक है। ये इतने गौरवशाली थे कि सवय नामक इन्द्र स्वयं आकर इन्हें पिता बनाकर इनका पुत्र बनकर इनके घर में रहा था। "अभूदिन्द्र: स्वयं तस्यं तनय: सव्य नामक:। अंगिरावंश वेदों के स्तोत्र पढ़ने में अद्वितीय परिगत थे। इनके स्तोत्र द्वारस्तंभों की तरह स्थिरता युक्त और अचल है। इन्द्र ने अंगिराओं ने (इंगलैड के ब्रात्य ब्रिटिशों के शिक्षकों के ) साथ पणियों (फिनशियनों) द्वारा चुराई गायें (पिनियन पर्वत) पर पायीं। इन्द्र से यह प्रार्थना भी की गयी है। कि - 'हे सर्वशक्तिशाली देव जिन्होंने नौमहीना (नवम्बर) में यज्ञ समाप्त किया है तथा दस महीना (दिसम्बर) में यज्ञ की पूर्ति की हैं, ऐसे सप्त संख्याओं वाले सद्गति पात्र महा मेधावी के सुखकर स्तोत्रों से तुम स्तुत किये गये हो । अंगिराओं ने मन्त्रों द्वारा अग्निदेव (माथुर देव) की स्तुति करके महावली और दृढ अंगों वाले (पानीपत वासी) पणि असुर को मन्त्र वल से नष्ट कर दिया था तथा हम अन्य ऋषियों के लिये द्युलोक (ब्रहमण्डल द्यौसरेस द्यौतानौ) देव क्षेत्र का मार्ग खोल दिया था। अंगिरसों ने इन्द्र के लिये अन्न अर्पित कर, अग्नि ज्वालाओं द्वारा इन्द्र का पूजन और हविदान कर यज्ञ कर्म के प्रधान पुरूषों के रूप अशव गौ तथा बहुत सा द्रव्य प्राप्त किया। अंगिरावंशी अंगिरसों ने मथुरा के भांडीरबन में "आंगिरससत्र" किया जिसमें विष्णु से कल्याण कामना का संकल्प था। इसी सत्र में श्रीकृष्ण बल राम ने अपने सखा भेज कर यज्ञान्न (मधुयुवत पुरोडाश) की याचना की और यज्ञ पत्नियों द्वारा सत्कृत और पूर्ण तृप्त होकर माथुरों की कर्म श्रेष्ठता का बंदन करते हुए इन्हें सदैव घृत पूर्णित और उत्तम भोजनों से सर्वत्र स��� युगो में आदरित होने का वरदान ��िया।
माथुर ब्राह्मणों के उच्चतिउच्च सदाचार और ज्ञान गौरव के आगे नत मस्तक होकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने आंगिरस प्रवरी घोर अंगिरस महर्षि से उपनिषदों का अध्ययन करके दुर्लभ ब्रह्मा विद्या भी प्राप्ति की जिसका उपयोग उन्होंने "श्री मद् भागवद गीता" में करके विश्व को सर्वोच्च दार्शसिक तत्व चिंतन के पथ पर चलने का दर्शन शास्त्र दिया। आंगिरसों की वैदिक वाणी से उत्पन्न आसुरी वैकृत भाषायें ग्रीस देश की ग्रीक, इगलेंड की आंगिरसी इंगलिश तथा अंगोला की महाबृषो "हवशियों" की भाषा अंगोलियन हैं , जो आंगिरसी शिक्षा के लिये कभी समर्पित थीं। आंगिरसों ने धर्म शास्त्र ग्रन्थ समृतियों का भी प्रवर्तन किया है। आंगिरा ने मथुरा के चित्रकेतु राजा वि0पू0 9332 के मृत पुत्र को जीवितकर ज्ञानोपदेश कराया । आंगरिसों ने स्वर्ग जाने में आदित्यों से स्पर्धा की तब आदित्य पहिले स्वर्ग पहुंच गय आंगिरा 60 वर्ष यज्ञ करने के बाद स्वर्ग पहंचे। आंगिरस पहिले ब्राह्मण थे जिनने सर्व प्रथम वाणी (भाषा) और छंद रचना ज्ञान देवों से प्राप्त दिया। आंगिरसों के परिवारों में गौत्र प्रवर्तक ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं-बृहस्पति भारद्वाज , आश्वलायन, गालव, पैल, कात्यायन, वामदेव, मुद्गल , मार्कड, तैतरेय, शौंग, (शुंग) , पतंजल्लि, दीर्घतमा, शुक्ल, मांधाता , यौवनाश्व , अंवरीष आदि ।
यौवनाश्व प्रवर – कुत्स गोत्र का यौवनाश्व प्रवर युवनाश्व पुत्र चक्रवर्ती सम्राट मांधाता के आत्म समर्पण का द्योतक है। मान्धाता यौवनाश्व का समय 5576 वि0पू0 है। भागवत के कथन से यौवनाश्व मांधाता पुत्र अंवरीष का पुत्र था जो अंगिराओं के शिष्यत्व से क्षातियोपेत ब्राह्मण बने। मांधाता यौवनाश्व चक्रवर्ती सूर्यवंशी सम्राट था और इसका साम्राज्य पश्चिम समुद्र तट कच्छ करांची (दांता राज्य) से पूर्व में जापान द्वीप तक था जो सूर्य उदय और सूर्य अस्त का क्षेत्र था। मथुरा के नमक व्यापार पर एकाधिकार के लिये लवणासुर ने इसका राज्य छीन लिया। यह मथुरा माथुर ब्राह्मणों और माथुरों के आराध्य वाराह देव का परम भक्त था तथा वाराह देव की पूजा इसने सारे भारत वर्ष में फैलायी थी। भरना मथुरा के क्षेत्र वासी महर्षि सौभरि से इसने श्री यमुना महारानी का पंचाग उपासना मार्ग ग्रहण किया और उन्हें अपनी 50 कन्यायें देकर उनका राजवैभव विस्तृत किया। ऋग्वेद में इनका मन्त्र 10-134 पर है।
कुत्स गोत्र का वेद ऋग्वेद शाखा आशवलायनी तथा कुल देवी महाविद्या जी है। कुत्स गोत्र के आस्पद भी बहुत महत्व पूर्ण हैं जो अपनी प्रमाणिक श्रेष्ठता के विस्तार को प्रतिपादित करते हैं।
1. मिहारी - ये सबसे अधिक ज्ञानी गुणी लोक सम्मानित और समाज के सरदार शीर्ष वर्ग में से हैं। यही एक ऐसा वर्ग है जो अपने महा महिमा मंडित आद्य पूर्वज श्री ज्ञान तपो मूर्ति उद्धवाचार्य देव के गुणों का गर्व करता हुआ एक ही उनके 200 से भी अधिक परिवारों में माथुर पुरी के प्रधान केन्द्र स्थान मिहार पुरा में अवस्थित हैं प्रलय में भी नष्ट न होने वाले ब्रज द्युलोक महालोक (महजन तप) महारानौ महरौली के आद्यक्षेत्र से वाराह यज्ञ में उतर कर मथुरापुरी में आकर पूजित ���ोकर स्थापित हुए। नन्द जशोदा तथा ब्रज के गो संस्कृति के अधिष्ठाता गोपों घोषपालों देवों के गोष्ठ रक्षकजनों को नंद मैहैर, मैहेर जसोध, मैहर गोपेशनंद आदि अपने शिष्यतत्व पद देकर तथा प्रख्यात ज्योतिर्बिद विक्रम के नवरत्न शिरोमणि बाराह मिहिर को भी बाद की प्रतिष्ठा से प्ररित किया। महलोंक के ये महामहर्षि प्रजापति दक्ष के पड़ौस में बसकर भी अपना कोई पाइसा न बनाकर दक्ष के कोप से मुक्त तथा दक्ष की प्रतिष्ठा युक्त मेत्री से विभूषित रहे। इन्होने गोप प्रजाओं को सादा पौष्टिक आहार महेरी खाने की सरल "सादाजीवन उच्च विचार मयी" पद्धति देकर सहज स्वाभिमानी बनाया। कहते हैं नंदराय गोपपति ने इन्हीं की सेवा कर आशीर्वाद साधना से पूर्ण पुरूषोत्तम श्री कृष्ण और धीर गंभीर लोक नमरकृत श्री बलराम देव जैसे पुत्र प्राप्त किये थे प्रमाण रूप पुरातन "कंस मेला" में दौनों भाई कंस विजय कर इनकहीं की गोद में विराजते विश्राम आरती अंगीकार करते हैं । इनके पुर के समीप वेश्रवण कुवेर का पुर (सरवन पुरा) है तथा रत्न सरोवर तथा स्वर्ण कलशधारी रत्नेश्वर शिव का देवस्थान है। जिसे "सोने का कलसा" वाला देव अभी भी कहा जाता है।
2. शांडिल्य- ये नंद गोपकुल के पुरोहित थे। इनका शाँडिल्य भक्तिसूत्र नारद भक्तिसूत्र के बाद भक्ति सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण बलराम की रक्षा हेतु सदा प्रयत्नशील रहते थे। इनका वंश प्राचीन है। कर्मपुराण के अनुसार थे असित (देवल) के पुत्र 5014 वि0पू0 में विद्यमान थे। महाभारत से इनकी संशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में विद्यमान थे । महाभारत से इनकी वंशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में भी थी। कृष्णकाल में इनका समय 3107 वि0पू0 है। इनका धर्मशास्त्र 'सांडिल्य स्मृति' हैं।
3. अकोर - यह अल्ल प्राय: विलुप्त है। मथुरा के समीप अर्कस्थ अकोस गांव में ये रहते थे। जो अर्क सूर्य का स्थल प्राचीन मथुरा के पंच स्थलों में से था।
4. धोरमई - ये मथुरा के निकट ध्रुवपुरी घौरैरा के वासी थे। धोरवई ध्रुव का अटल पद (अटल्ला चौकी) वर्तमान ब्रन्दावन के निकट है। धुरवा, धुरैरा (रज के ) धुर्रा , धुरपद, गाढी का धुरा, धुरंथर, ध्रुव काल के माथुरी भाषा के शब्द हैं।
5. गुनारे - मथुरा के मधुवन के समीप फाल्गुनतीर्थ पालीखेड़ा तथा फालैन में इनका निवास था। ब्रज के फाल्गुनी यज्ञ (होली) के महीना में ही अर्जुन का जन्म होने पर इन्होंने फाल्गुनी बालक के जन्म का महोत्सव किया था। गुना क्षेत्र ग्वालियर गोपाचल में भी हैं। इनका समय 3110 वि0पू0 के लगभग है।
6. खलहरे - ये यज्ञ कर्म में ब्रीहि यव धान्य उलूखलों मे कूटकर यज्ञहवि प्रस्तुत करते थे। ऐसे उलूखलनंदराय के भी गोकुल में थे जिनमें से एक ऊखल से श्री कृष्ण को माता यशोदा ने बाँधा था तभी से उनका नाम दामोदर पड़ा । महावन में ऊखल बंधन का स्थान अभी है। यहीं यमलार्जुन तीर्थ भी है।
7. मारोठिया - 49 मरूतगणों का प्रदेश मरूधन्व (मारवाड़) प्रसिद्ध है। मरूतों की पुरी मारौठ तथा मरूदगण वंशी (आंधी तूफान के देवता) मारौठिया, मराठा, राठौर प्रसिद्ध हैं ये दक्ष यज्ञ के समय अपने मरूत क्षेत्र (मारू गली) में दक्ष और देव पक्ष की रक्षा हेतु वीरभद्र की भूतसेना से लड़े थे। मारूगली में भी मारू राजा का महल मारू देवता, मारूगण, तीरभद्र वीर प्रतिमां अभी मथुरा में है।
8. सनौरे - ये 12 अदित्यों में पूषन सूर्य के वंशधर हैं। उशीनर देश के राजा शिवि महादानी के ये पुरोहित थे। ब्रज में अपने क्षेत्र चौमां में ये सन (पटसन फुलसन अलसी) कुटवा कर ऋषियां और ब्रह्मचारियों के लिये क्षौममेखला और क्षौमपट कारीगरों से बनवाकर प्रस्तुत करते थे।
9. सौनियां - ये ब्रजसीमा सोनहद के वासी थे। गंधारी शकुनी को शकुन शाऊत्र सगुनौती विद्या सिखाने से तथा सगुन चिरैया द्वारा प्रश्नोत्तर देने से "शाकुने तु बृहस्पति" के प्रमाण से अंगिराओं की विद्या के आचार्य थे सगुनियों से सौनियां नाम पाया । ये मीठों में ही हैं।
10. सद्द - ये सद्द देवों की देवसद या ऋषियों की धर्म परिषद के धर्म निर्णायक सदस्य 'सद्द' हैं। इनकी परिषद् परम्परा मौर्य गुप्तकाल तक स्थापित थी सद्दू पांड़े की वैठक श्री नाथ जी के समय की जतीपुरा में है। वर्हिषद प्रियब्रत वंशी सम्राट की पुरी वहेड़ी उत्तर पाँचाल में अभी वर्तमान है। यहीं प्रियब्रत पुरी पीलीभीत तथा हविर्धान की हविर्धानी हल्द्वानी है इनका ही अपभ्रंश नाम सद्द है।
11. कुसकिया - ये विश्वामित्र के दादा कुशिक के पुर कुशकगली मथुरा के प्राचीन निवासी हैं। ये मीठों में है। कुशिकापुर के लोग पीछे मुसलिम बना लिये गये तथा कुशिकपुर पर मसजिद बना कर कब्जा कर लिया गया। कुशिक के पुत्र गाधि का गाधीपुरा (नया गोकुल के निकट) तथा विश्वामित्र तीर्थ स्वामीघाट मथुरा ही में हैं।
12. सिरोहिया - ये सिरोही राज्य में जाकर आश्रय पाने से सिरोहिया कहे गये। ये भी मीठे वर्ग में हैं। किसी समय सिरोही की तलवारें बहुत नामी होती थीं। असुर असिलोमा के अश्वारोही सैनिक दल की यह प्राचीन पुरी थी।
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my-neurosis · 1 year
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03:35 PM
सुबह से पैर में दर्द है। एक किसी नस जैसा कुछ रह-रह कर खिंचता हुआ महसूस होता है, जैसे घोड़े की लगाम खींची जा रही हो। माँ कहती है पानी की कमी होगी। उठकर पिया। रविवार की दोपहर समर्थ वशिष्ठ के शब्दों में "सप्ताह की वही उदास कविता" है। बारिश होते-होते रह गयी। या शायद होनी ही नहीं थी। मेरा भ्रम? खास रंगों, एक विशिष्ट महक और एक नदी के सिवा बहुत कुछ याद नहीं रहता। कविताएं थोड़ी बहुत पढ़ी जा रही हैं।
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rtravel1996 · 1 year
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मनाली जाना है ? हनीमून के लिए
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तो चलो मेरे साथ गिफ्ट के पैसे में से 6000 से ₹8000 निकालो हम बस का सफर करेंगे दिल्ली से मनाली की दूरी 522 किमी है। बस का किराया 800 से ₹1000 तक तकराया होगा बस से मॉल रोड पहुंच जाओ और एक रूम बुक कर लो 800 से ₹1000 में रूम बुक हो जाएगा फिर एक स्कूटी किराया पे ले लो और फिर घुमाने चलो
प्हिडिम्बा मंदिर
वशिष्ठ कुण्ड
मणिकरण साहिब
बौद्ध मठ
रोहतांग दर्रा
रोहतक द्वार पास बनवा लेना
व्यास कुंड
ओल्ड मनाली
सोलंग नाला/सोलांग घाटी
मनु मंदिर
कसोल
हम्प्टा दर्रा
आप यहां के खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों के अलावा मनाली में हाइकिंग, पैराग्लाइडिंग, राफ्टिंग, ट्रैकिंग, कायकिंग जैसे खेलों का भी आनंद उठा सकते है। मनाली भारत के हिमाचल प्रदेश का एक शहर है। मनाली कुल्लु घाटी के उत्तर में स्थित हिमाचल प्रदेश का लोकप्रिय पहाड़ी स्थल है। गर्मियों से निजात पाने के लिए इस हिल स्टेशन पर हजारों की तादाद में सैलानी आते हैं। पहाड़ी क्षेत्र होने के नाते, मनाली में कोई रेलवे स्टेशन नहीं है। दिल्ली से जोगिन्दरनगर और पठानकोट के लिए ट्रेन सेवाएं हैं। ऐसी और post देखने के लिए हमारे Rtravel को सब्सक्राइब करें और हमारे पेज को फॉलो करें
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naveensarohasblog · 2 years
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#गहरीनजरगीता_में_Part_273 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#गहरीनजरगीता_में_part_274
हम पढ़ रहे है पुस्तक "गहरी नजर गीता में"
पेज नंबर 530-532
{प्रमाण के लिए गीता जी के कुछ श्लोक:--
अध्याय 9 का श्लोक 20
त्रौविद्याः, माम्, सोमपाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्टवा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते,
ते, पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान्।।20।।
अनुवाद: (त्रौविद्याः) तीनों वेदों में (ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद, चैथा अथर्ववेद तो विज्ञान की जानकारी
देता है। सृष्टि उत्पत्ति का ज्ञान है, भक्ति का कम है।) विधान किए हुए भक्ति कर्मों से (सोमपाः) सोमरस को पीने वाले (पूतपापाः) पापरहित पुरुष (माम्) मुझको (यज्ञैः) यज्ञोंके द्वारा (इष्टवा) पूज्य देव के रूप में पूज कर
(स्वर्गतिम्) स्वर्ग की प्राप्ति (प्रार्थयन्ते) चाहते हैं (ते) वे पुरुष (पुण्यम्) अपने पुण्यों के फलरूप (सुरेन्द्रलोकम्) इन्द्र के लोक स्वर्ग लोक को (आसाद्य) प्राप्त होकर (दिवि) स्वर्ग में (दिव्यान्) दिव्य (देवभोगान्) देवताओं के भोगों को
(अश्नन्ति) भोगते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 21
ते, तम्, भुक्त्वा, स्वर्गलोकम्, विशालम्, क्षीणे, पुण्ये, मत्र्यलोकम्, विशन्ति,
एवम्, त्रायीधर्मम्, अनुप्रपन्नाः, गतागतम्, कामकामाः, लभन्ते।।21।।
अनुवाद: (ते) वे (तम्) उस (विशालम्) विशाल (स्वर्गलोकम्) स्वर्गलोक को (भुक्त्वा) भोगकर (पुण्ये) पुण्य (क्षीणे) क्षीण होने पर (मत्र्यलोकम्) मृत्युलोक को (विशन्ति) प्राप्त होते हैं। (एवम्) इस प्रकार (त्रायीधर्मम्) तीनों
वेदों में कहे हुए आध्यात्मिक कर्म का (अनुप्रपन्नाः) आश्रय लेने वाले और (कामकामाः) भोगों की कामनावस
(गतागतम्) बार-बार आवागमन को (लभन्ते) प्राप्त होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 17
आत्सम्भाविताः, स्तब्धाः, धनमानमदान्विताः,
यजन्ते, नामयज्ञैः, ते, दम्भेन, अविधिपूर्वकम्।।17।।
अनुवाद: (ते) वे (आत्मसम्भाविताः) अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले (स्तब्धाः) घमण्डी पुरुष (धनमानमदान्विताः) धन और मान के मद से युक्त होकर (नामयज्ञैः) केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा (दम्भेन) पाखण्ड से (अविधिपूर्वकम्)
शास्त्राविधिरहित (यजन्ते) पूजन करते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 18
अहंकारम्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, च, संश्रिताः,
माम्, आत्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तः, अभ्यसूयकाः।।18।।
अनुवाद: (अहंकारम्) अहंकार (बलम्) बल (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) कामना और (क्रोधम्) क्रोधादिके (संश्रिताः) परायण (च) और (अभ्यसूयकाः) दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष (आत्मपरदेहेषु) प्रत्येक शरीर में
परमात्मा आत्मा सहित तथा (माम्) मुझसे (प्रद्विषन्तः) द्वेष करने वाले होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 19
तान् अहम्, द्विषतः, क्रूरान्, संसारेषु, नराधमान्,
क्षिपामि, अजस्त्राम्, अशुभान्, आसुरीषु, एव, योनिषु।।19।।
अनुवाद: (तान्) उन (द्विषतः) द्वेष करनेवाले (अशुभान्) पापाचारी और (क्रूरान्) क्रूरकर्मी (नराधमान्)
नराधमोंको (अहम्) मैं (संसारेषु) संसारमें (अजस्त्राम्) बार-बार (आसुरीषु) आसुरी (योनिषु) योनियों में (एव) ही (क्षिपामि) डालता हूँ।
अध्याय 16 का श्लोक 20
आसुरीम्, योनिम्, आपन्नाः, मूढाः, जन्मनि, जन्मनि,
माम् अप्राप्य, एव, कौन्तेय, ततः, यान्ति, अधमाम्, गतिम्।।20।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (मूढाः) वे मूढ (माम्) मुझको (अप्राप्य) न प्राप्त होकर (एव) ही (जन्मनि) जन्म
(जन्मनि) जन्ममें (आसुरीम्) आसुरी (योनिम्) योनि को (आपन्नाः) प्राप्त होते हैं फिर (ततः) उससे भी (अधमाम्) अति नीच (गतिम्) गतिको (यान्ति) प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 23
यः, शास्त्राविधिम्, उत्सृज्य, वर्तते, कामकारतः,
न, सः, सिद्धिम्, अवाप्नोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम्।।23।।
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अनुवाद: (यः) जो पुरुष
(शास्त्राविधिम्) शास्त्राविधि को (उत्सृज्य) त्यागकर (कामकारतः) अपनी इच्छा से मनमाना (वर्तते) आचरण करता है (सः) वह (न) न (सिद्धिम्) सिद्धि को (अवाप्नोति) प्राप्त होता है (न)न (पराम्)परम
(गतिम्) गति को और (न) न (सुखम्) सुख को ही।}
विशेष:- तत्वज्ञान के अभाव से ऋषियों व देवताओं में अहंकार व घमण्ड तथा मान-बड़ाई की चाह सदा रही है। क्रोध भी चर्म सीमा पर रहा। जिस कारण से पाण्डवों की यज्ञ उनके भोजन करने
से सफल नहीं हुई। उदाहरण:- ऋषि विश्वामित्र व ऋषि वशिष्ठ जी का वैर भाव किसी से छिपा नहीं है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र से कहा था कि आओ राज ऋषि। इस पर विश्वामित्र ने इतना क्रोध किया कि ऋषि वशिष्ठ के सौ पुत्रों की हत्या कर दी। ऐसा अनर्थ राक्षस करता है।
अन्य उदाहरण:- विष्णु पुराण के अध्याय 4 के श्लोक 72.94 तक प्रमाण है कि ऋषि वशिष्ठ जी ने राजा निमि को श्राप दिया कि तेरी मृत्यु हो यानि सीधी भाषा, तू मर जा। उस राजा की मृत्यु हो गई। उस राजा ने ऋषि वशिष्ठ को मृत्यु होने का श्राप दिया जिससे उसकी भी मृत्यु हो गई।
कारण यह था:- राजा निमि के पुरोहित ऋषि वशिष्ठ जी थे। राजा निमि ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ करने का संकल्प लिया और अपने पुरोहित वशिष्ठ से यज्ञ करने के लिए निवेदन किया। उसी
दौरान देवराज इन्द्र ने पाँच सौ वर्षों तक यज्ञ करने के लिए ऋषि वशिष्ठ जी को होता (हवनकर्ता) बनने का निमंत्राण भेजा। ऋषि वशिष्ठ ने विचार किया कि पहले इन्द्र का यज्ञ कर दूँ। उसमें अधिक धन-माल मिलेगा। राजा का यज्ञ बाद में करूंगा। राजा को पता चला कि ऋषि वशिष्ठ इन्द्र का यज्ञ करने गए हैं तो उसने ऋषि गौतम जी से अपना एक हजार वर्ष का यज्ञ प्रारम्भ करवा दिया। इन्द्र का पाँच सौ वर्ष का यज्ञ करके ऋषि वशिष्ठ जी लौटे तो राजा को अन्य ऋषि से
अनुष्ठान करवाता देखकर श्राप दे दिया कि निमि तेरी मौत हो जाए। राजा ने भी ऋषि को मृत्यु का श्राप दे दिया और दोनों मर गए।
विचार करें पाठकजन! क्या ये ऋषि मोक्ष के अधिकारी हैं। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रमाण हैं ऋषियों के घमण्ड, मान-बड़ाई, ईष्र्यावश क्रोध से अनर्थ करने के। अधिक जानकारी के लिए कृपा पढ़ें पुस्तक ‘‘आध्यात्मिक ज्ञान गंगा’’ में।
( अब आगे अगले भाग में)
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Ramayana
।। रामायण।।
महर्षि वाल्मीकि को रामायण रचना की प्रेरणा
एक दिन महर्षि वाल्मीकि मध्याहन के समय स्नान के लिए तमसा नदी की ओर जा रहे थे। चारों ओर बिखरी हुई वंसत ऋतु की छटा उनके मन को लुभा रही थी। नये पत्तों, फलांे और फूूलों से युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी शोभा से मन को मोहित कर रहे थे। रंग-बिरंगे पक्षी मधुर स्वर में गुंजार कर रहे थे। तमसा नदी का जल स्वच्छ था। उसमें रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। नदी के किनारे बैठे पक्षी उड़-उड़कर पानी में अपनी चोंच डुबाकर कुछ पकड़ रहे थे। प्रकृति की इस सुन्दरता को ��ेखकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय पुलकित हो रहा था। सहसा क्रौ´च पक्षी के स्वर ने उनके ध्यान को आकृष्ट किया । उन्होंन देखा कि क्रौ´च पक्षी का एक जोड़ा नदी तट पर स्वच्छन्द विचरण कर रहा है। वे एक-दुसरे के पीछे भागते, आपस में चोंच मिलाते हुए अठखेलियाँ कर रहे थे। इस दृश्य को महामुनि देख ही रहे थे कि किसी पापी बहेलिया ने क्रा´ैच पक्षी को बाण से मार दिया। बाण से घायल, रक्त से लथपथ क्रो´च को धरती पर छटपटाते देखकर क्रा´च करुण स्वर में विलाप करने लगी। क्रौ´च के करुण क्रन्दन को सुनकर मुनि का हृदय करुणा से भर गया। उनके हृदय में शोकरुपी अग्नि करुण रस के श्लोक के माध्यम से इस प्रकार निकल पड़ी-
मा निषाद् प्रतिष्ठांत्वमगमंः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
(हे निषाद्! तुम सहस्रों वर्षों तक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकोगे क्योंकि तुमने काम-मोहित क्रौच के जोड़े में से क्रौच की हत्या कर दी है।)
यह श्लोक वेदों के अतिरिक्त नए छन्द की उत्पत्ति थी। इस प्रकार का उच्चारण करते हुए महर्षि वाल्मीकि शोकाकुल हो उठे। अरे! पक्षी के दुःख से दुखी मैंने यह क्या कह दिया। इसी समय चतुरानन भगवान ब्रह्मा महामुनी वाल्मीकि के समक्ष प्रकट हुए और बोले - ’’हे महामुनी ! दुःखी मनुष्यों पर दया करना महान लोगों का स्वाभाविक कत्र्तव्य है। श्लोक उच्चरित करते हुए आपने इसी धर्म का पालन किया है। अतः इस विषय में शोक करने कि आवश्यकता नहीं है। सरस्वती मेरी इच्छा से आप में प्रवृत्त हुई है। अब आप अनुष्टुप छन्दों में इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पु़़़त्र राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कीजिए। राम की कथा तो सक्षेंप में आप नारद द्वारा सुन हि चुके हैं। मेरी कृपा से समस्त रामचरित आपको ज्ञात हो जाएगा। जब तक पृथ्वी पर पर्वत, नदी और समुद्र स्थित रहेंगे तब तक संसार में रामायण की कथा प्रचिलित रहेगी ।’’ऐसा कहकर भगवान ब्रह्मा अन्तर्धान हो गए। ब्रह्मा जी से प्रेणा प्राप्त करने के बाद वाल्मीकि, श्लोकों में राम के चरित्र का वर्णन करने लगे। ब्रह्मा की कृपा से राम का सम्पूर्ण चरित्र उनके समक्ष प्रत्यक्ष रुप से दृष्टिगोचर होता गया। चैबिस हजार श्लोकों में वाल्मीकि जी ने रामायण नामक आदि महाकाव्य की रचना की। इसको ज्ञानरुपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्रीरामचन्द्र जी और सीता जी का यश अमृत के समान है।
राम सुप्रेमहि पोषक पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी।। भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुःख दारिद दोषा।।
अर्थात् यह जल श्रीरामचन्द्र जी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। संसार के जन्म-मृत्यु रुपी श्रम को सोख लेता है और पाप, ताप, दरिद्रता आदि दोषों को नष्ट करता है।
आदि काण्ड (बाल काण्ड)
मड्गलाचरण-
वर्णानामर्थसंघानां रसाना छन्दसामपि। मड्गलानां च कत्र्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
अर्थात् अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मड्गल कार्यौ को करने वाली सरस्वती जी और गणेश जी की मैं वंदना करता हूँ।
अयोध्या पुरी का वर्णन
सरयू नदी के किनारे स्थित कोशल नामक राज्य की राजधानी अयोध्या थी। इसी अवधपुरी में, त्रेता युग में रधुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए। अयोध्या नगरी बारह योजन लंम्बी और योजन चैड़ी थी। नगर के चारों ओर ऊँची - ऊँची दीवारें थीं और उसका बाहरी भाग गहरी खाईं से धिरा हुआ था। हजारों सैनिक और महारथी इस नगर की रक्षा थे। राजमहल नगर के मध्य में स्थित था। राजमहल से आठ सड़कें और परकोटे(चहारदीवारी) तक बनी हुई थीं। यह नगर सुन्दर उद्यानों, सरोवरों और क्रीड़ागृहों से परिपूर्ण था। नगर में अनेक विशाल भवन थे जिसमें विदृान, कलाकार,व्यापारी आदि रहते थे।नगर में चारो ओर सुख और शंाति का वातावरण था। यहाँ के निवासी सुखी, सम्पन्न और खुशहाल थे। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ अवधपुरी में रधुकुलशिरोमणि राजा दशरथ धर्मात्मा, गुणों के भण्डार और ज्ञानी थे। सगर, रधु,दिलीप आदि उनके पूर्वज थे। उनके राज्य में, उनके मुख्यमंत्री सुमन्त्र के अतिरिक्त अन्य सुयोग्य मंत्री भी थे, जो राज्य संचालन में सहयोग देते थे। वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि कुलपुरोहित के साथ परामर्श कर राजा सदैव अपनी प्रजा के हित के लिए तत्पर रहते थे। राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं - कौशल्या, सुमित्रा, और कैेकेयी। ये सभी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। वे विनम्र स्वभाव और पति की अनुगामिनि थीं। श्री हरि के चरण-कमलों में अनका दृढ़ प्रेम था। धन,मान यश से युक्त होते हुए भी राजा दशरथ को संतान का सुख प्राप्त नहीे था।
एक बार भूपति मन माहि। भै गलानि मोरें सुत नाहिं।। गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।
( एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं। राजा तुरन्त गुरु वशिष्ट के घर गए और चरणों में प्रमाण कर बहुत विनय की। ) र��जा ने गुरु वशिष्ठ को अपना सारा दुःख सुनाया। गुरु वशिष्ठ ने राजा को पुत्र-कामेष्टि यज्ञ करने कि सलह दी। यह की सारी तैयारियाँ विघि-विघान से होनें लगीं। अनेक ऋषि, मुनि और राजाओं को ��स यज्ञ में आमंत्रित किया गाया। यज्ञ कराने के लिए ऋषि ऋष्यशृंग को बुलाया गया। यज्ञशाला का निर्माण सरयू नदी के तट पर कराया गया । वेद-मंत्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में आहुतियाँ पड़ने लगीं। आहुतियाँ पूर्ण होने स्वय अग्निदेव हविष्यात्र (खीर) लेकर प्रकट हुए। ऋष्यशृंग ने अग्निदेव से खीर का पात्र राजा दशरथ को दे दिया। राजा परमानन्द में मग्न हो गए। उन्होंने खीर का पात्र कौशल्या को देकर कहा कि तुम लोग इसको बाँट लो। कौशल्या ने खीर का आधा भाग स्वयं ले लिया। श्ेाष आधा भाग सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने आधे भाग के दो भाग कर एक भाग अपने लिए रखा और दुसरा भाग कैकेयी को दे दिया। कैकेयी ने उस खीर का आधा ही सेवन किया और आधा फिर सुमित्रा को वापस दे दिया। इस प्रकार सभी रानियाँ गर्भवती हुई। वे बहुत हर्षित हुई। उन्हें अपार सुख मिला।
रामावतार
पवित्र चैत्र मास की नवमी तिथि थी। शुल्क पक्ष की उस शुभ धड़ी में दीनों पर दया करने वाले, कौशल्या जी हितकारी कृपालु प्रभु, श्रीराम अवतरित हुए।
भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रुप बिचारी।।
रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए - लक्ष्मण और शत्रुध्न। कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। इस अवसर पर आकाश से फूलों की वर्षा हो रही थी। राजा दशरथ पुत्रों के जन्म का समाचार सुनकर मानों ब्रह्मानन्द में समा गए। अयोध्या पुरी में घर-घर मङ्गलगान गाए जाने लगे। राजा और प्रजा सभी आनन्दमग्न हो गए। चारों राजकुमार अपनी बालक्रीड़ा से नगरवासियों को मंत्र-मुग्ध करते हुए बड़े होने लगे। भगवान राम ने अनेक बाल लीलाएँ कीं और अपने सेवकों को आनन्दित किया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने लगे। लक्ष्मण जी बचपन से ही रामचन्द्र जी के प्रति अनुराग रखने वाले थे और सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। इसी प्रकार शत्रुधन भरत जी को प्राणों से प्रिय थे।
विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा
जब चारों भाई कुमारावस्था में पहुँचे तब राजा दशरथ ने कुलगुरु वशिष्ठ से उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। सभी राजकुमारों नें कुछ ही समय में वेद, शास्त्र, पुराण, शस्त्र विद्या और राजनीति, विनम्रता आदि गुणों का भी भण्डार था। उनके साहस, पराक्रम के साथ ही शालीनता, विनम्रता आदि गुणों का भी भण्डार था। उनके चरित्र को देखकर माता-पिता अत्यन्त हर्षित होते थे। राजकुमारों के युवा हो जाने पर राजा दशरथ ने उनके विवाह के विषय में विचार किया। उन्होंने अपने कुलपुरोहित, मंत्रियों को बुलाया और इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि द्वारपाल ने महर्षि विशवामित्र के आगमन की सुचना दी। मुनि का आगमन सुनकर राजा तुरन्त अनके स्वागत के लिए आगे बढे़ और दण्डवत् करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें आसन पर बिठाया। उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार कर उनके आने का कारण इस प्रकार पुछा-
तब मन हरिष वचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।। केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
तब विश्वामित्र ने कहा - ’’हे राजन ! राक्षसराज रावण के दो अनुचर मारिच और सुबाहु हमारे यज्ञ में बहुत बाधा पहुँचाते हैं। इसलिए यज्ञ रक्षा हेतु हम आपके वीर पुत्रों लक्ष्मण सहित राम को माँगने के लिए आए हैं। आप उन्हें मेरे साथ भेज दीजिए। आप डरें नहीं, राम की भी भलाई इसमें हैं।‘‘यह सुनकर राजा का हृदय मानों काप उठा। राजा ने मुनि से कहा - ‘‘मेरे पुत्र मुझे प्रणों के समान प्यारे हैं। कहाँ वे अत्यन्त डरावने क्रूर राक्षस और कहा परम किशोर अवस्था के ये मेरे पुत्र ? उनका सामना ये कैसे कर पाएँगे ? मैं अपनी सेना के साथ स्वयं चलकर आपके यज्ञ की रक्षा करूँगा। आप मुझे पुत्र-वियोग दुःखी न कीजिए।‘‘ तब राजगुरू वशिष्ठ जी ने राजा को अनेक प्रकार से समझाते हुए कहा- ‘‘महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरूष हैं, तपस्वी हैं और अनेक विद्याओं के ज्ञाता हैं। वे किसी कारणवश ही आपके पास आए है। आप राम-लक्ष्मण को जाने दें। इनके जैसा बलवान और बुद्धिमान कोई नहीं है।‘‘ इस प्रकार राजा दशरथ का सदेंह समाप्त हो गया और उन्होनें राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दे दी। राम-लक्ष्मण, धनुष-बाण धारण कर माता-पिता से आर्शीवाद लेकर विश्वामित्र के साथ चल दिए। जब वे सरयू नदी के किनारे पहुँचे तो विश्वामित्र ने उन्हें हाथ-मुँह धोकर अपने पास आने को कहा। उन्होनें राम-लक्ष्मण को बला-अतिबला नामक गुप्त विद्याएँ प्रदान कीं जिससे उनके शरीर में नवीन स्फूर्ति आ गई। उनका आत्मबल और बढ़ गया। उस दिन उन्होनें सरयू नदी के किनारे विश्राम किया।
ताड़का संहार
अगले दिन वे सरयू नदी के किनारे पुःन आगे चल दिए। सरयू और गंगा के संगम को पार कर वे एक भयानक जंगल में पहुँच गए। सारा वन-प्रदेश हिंसक पशुओं की आवाजों से गुँज रहा था। महिर्ष विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को बताया कि यहाँ से दो कोस दूरी पर ही ताड़का नामक राक्षस रहती है। वह बड़ी ही बलवती, भयानक और दुष्टा है। वह और उसका पुत्र मारिच दोनों ने मिलकर यहाँ उत्पात मचा रखा है। तुम्हें उसका वध करना हैं। स्त्री जाति समझ कर तुम्हें उस पर दया नहीं करनी है। राम ने विश्वामित्र से कहा, आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है और धनुष की डोर खीेेेंच कर उसी दिशा की ओर बाण छोड़ दिया। धनुष की टंकार से दिशाएँ गूँज उठीं। राक्षसी ताड़का भी आवाज सुनकर गरजती हुई दौड़ी। राम के पास पहुँच कर उसने अपनी मायावी विद्यायों का प्रयोग किया। धुल के बादल उड़ाए, पत्थरों की वर्षा की। लेकिन राम के सामने टिक न सकी। राम ने उसे बाणों से घायल कर दिया। वह राम की ओर जैसे ही झपटी, उन्हानें ऐसा तीक्ष्ण बाण छोड़ा जो हृदय चीरता हुआ निकल गया। विश्वामित्र ने हर्षित होकर राम को गले से लगा लिया। तब ऋषि ने दंडचक्र, कालचक्र, ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य अस्त्र राम को दिए। इसके बाद मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ लेकर अपने सिद्धाश्रम में आए। वहाँ आश्रमवासियों ने भक्तिपुर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया। प्रातः श्रीराम ने मुनि से कहा - ‘‘आप निडर होकर यज्ञ प्रारम्भ कीजिए।‘‘ यज्ञ प्रारम्भ हो गया। पाँच दिन तक निर्विघ्न यज्ञ होने के बाद छठे दिन आकाश में घोर गर्जना सुनाई दी। दो विशालकाय राक्षस मारीच और सुबाहु वहाँ पहुँच गए। उनके साथ अनेक राक्षसों की सेना भी थी। श्रीराम ने मारिच के ऊपर बिना फलवाला बाण चलाया जिससे वह सौ योजन विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा। फिर सुबाहु को अग्निबाण से मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मण ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। यह देखकर सारे देवता और मुनि राम की स्तुति करने लगे। विश्वामित्र का यज्ञ बिना किसी बाधा के सम्पन्न हो गया। राम ने विश्वामित्र से पुछा - ‘‘अब हमें क्या कार्य करना है ?‘‘ विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि जनकपुरी में एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया गया है। तुम दोनों हमारे साथ वहाँ चलो। वहाँ एक विचित्र धनुष है, जिसे कोई उठा नहीं पाता है, तुम वह धनुष भी देखना। राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का मिथिला को प्रस्थान राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ जनकपुरी (मिथिला) की ओर चल पड़े। अनेक अन्य ऋषि भी उनके साथ थे। विश्वामित्र उन्हें विभिन्न्ा स्थानों की जानकारी देते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। मार्ग में, उन्होंनेें सोन नदी को पार किया। अब वे एक सुन्दर वन-प्रदेश में पहुँच गए। विश्वामित्र उन्हें बताया कि बहुत पहले मैं यहाँ का राजा था। उन्होनें अपने पूर्वजों के बारे में भी विस्तार से बताया। रात को उन्होनें वहाँ विश्राम किया। विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पति, पार्वति कथा, स्वामिकार्तिक के जन्म की भी विस्तार से राम-लक्ष्मण को सुनाई।
अहिल्या उद्धार
मिथिला के पास पहुँचने पर उन्हें एक आश्रम दिखाई दिया। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं दिखाई पड़ रहा था। इस सुनसान आश्रम को देखकर राम ने उसके विषय में मुनि से पूछा। मुनि ने बताया कि यह गौतम ऋषि का आश्रम है। जब वे अपनी पत्नी अहिल्या के साथ यहाँ रहते थे उस समय यहा कि शोभा दर्शनीय थी। एक दिन की घटना है कि रात को ही सबेरा समझकर ऋषि गंगा-स्नान करने के लिए चले गए। तदोपरान्त इन्द्र गौतम ऋषि के भेष में आश्रम में आ गए। जब गौतम ऋषि वापस आए तो उन्होनें इन्द्र को आश्रम से निकलते हुए देख लिया। वे क्रोधित हो गए और उन्होनें अहिल्या को शाप दे दिया कि ‘‘अब तू यहाँ समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर हजारों वर्षों तक केवल हवा पीती हुई राख में पड़ी रहेगी। जब दशरथ पुत्र राम का पदार्पण यहाँ होगा तब तू शापमुक्त हो जाएगी। यह कथा सुनकर राम का हृदय द्रवित हो गया। उन्होनें आगे बढ़कर पत्थर का शरीर धारण किए हुए अहिल्या के चरण स्पर्श किए। श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करने वाले स्पर्श को पाते ही सचमुच वह तपोमुर्ति अहिल्या प्रकट हो गईं। उन्होनें हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की और महर्षि गौतम के पास चली गईं।
श्रीराम-सीता विवाह
मिथिलापति जनक जी को जब मुनि विश्वामित्र के आने का समाचार प्राप्त हुआ तो वे मंत्रियों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों और गुरू (शतानन्द जी) के साथ उनके स्वागत के लिए द्वार पर आए। राजा ने विश्वामित्र के चरणों पर मस्तक रखकर उनका अभिवादन किया। उनके कुशल सामाचार पूछे। जब उन्होंने राम और लक्ष्मण को देखा तो उनके तेज से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने विश्वामित्र से पूछा - ‘‘ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? मेरा वैरागी मन इन्हें देखकर इस प्रकार मुग्घ हो रहा है जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर।‘‘ तब विश्वामित्र ने बताया -‘‘ ये रघुकुलशिरोमण महाराज दशरथ के पुत्र हैं। इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकार मेरे यज्ञ की रक्षा की है।‘‘ मुनि के चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में ले आए और एक सुन्दर महल(जो सभी ऋतुओं में सुखदायक था।) मे ठहराया। अगले दिन, जनक जी ने शतानन्द जी को मुनि विश्वामित्र के पास भेजा। मुनि विश्वामित्र ऋषियों, लक्ष्मण एवं श्रीराम सहित धनुष यज्ञशाला देखने गए। वहाँ अन्य देशों के राजा एवं गणमान्य लोग भी उपस्थि थे। राजा ने उनको ऊँचे आसन पर बिठाया एवं मुनि के चरणों की वंदना कर अपनी प्रतिज्ञा के विषय में बताया हौर अपनी यज्ञशाला दिखाई। जब विश्वामित्र ने सुनाभ नामक धनुष देखने की इच्छा व्यक्त की तब जनक जी उन लोगों को साथ लेकर उस धनुष के पास गए। जनक जी ने बताया कि यह धनुष शिव जी का है। यह हमारे पूर्वज देवरात को देवताओं ने प्रदान किया था। मेरी प्रतिज्ञा सुनकर, अनेक राजा, देव-दानव आदि यहाँ आए परन्तु कोई इस धनुष को हिला भी नहीं सका। तब जनक जी की व्यथा को समझते हुए मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम की ओर इशारा किया। गुरू की आज्ञा पाकर श्रीराम ने धनुष को उठा लिया और धनुष की प्रत्यंचा खीचंकर बीच से तोड़ दिया। धनुष के टूटने से भयंकर ध्वनि हुई। जिस समय धनुष टूटा उस समय वहाँ जनक जी सहित हजारों लोग उपस्थ्ति थे।
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।। कौसिक रूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।
राजा जनक हर्ष से गदगद हो गए। सारे ब्रह्माण्ड में जय-जयकार की ध्वनि गूँज उठी। राजा जनक ने मुनि विश्वामित्र से कहा - ‘‘हे मुनिवर! टापकी कृपा से मुझे अपनी पुत्री सीता के निए मनचाहा वर मिल गया। यदि आप आज्ञा दे ंतो मैं दशरथ के पास यह सदेंश भेजकर बारात ले आने का निमंत्रण भेज दूँ। उनकी सहमति पाकर राजा जनक ने मंत्रियों को अयोध्या जाने का आदेश दिया। जब राजा दशरथ को सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। महल में जाकर राजा ने यह शुभ समाचार सभी रानियों को बताया। रानियाँ भी अत्यन्त आनन्दित हुईं महल में आनन्द का वातावरण छा गया। राजा दशरथ गुरू वशिष्ठ से आज्ञा लेकर बारात ले जाने की तैयारी में जुट गए। हाथी, धोड़ा, रथ आदि से सजी बारात ने चतुरंगिणी सेना के साथ मिथिला की ओर प्रस्थान किया। पाचँवें दिन बारात मिथिला जा पहुँची। राजा जनक ने बारातियों का विधिवत् स्वागत-सतकार किया और सबको जनवासे में आ गए। राम-लक्ष्मण ने पिता का अभिवादन किया। राजा दशरथ ने विश्वामित्र के चरण छुए और कहा - ‘‘हे मुनिवर! आपकी कृपा से मुझे आज यह शुभ दिन देखने को मिल रहा है।‘‘ उस समय मिथिला की सजावट देखने योग्य थी। प्रत्येक घर पर वन्दनवार लगे थे। सखियाँ मंगलगीत गा रही थीं। विवाह-मंडप की शोभा अतुलनीय थी। उसे हीरे और मणियों से सजाया गया था। महाराज दशरथ गुरू वशिष्ठ के साथ चारों राजकुमार को लेकर विवाह-मंडप में आए। राजा जनक भी अपनी चारों राजकुमारियों को लेकर मंडप में आए। राजा जनक ने महाराज दशरथ से सीता के विषय में बताया - ‘‘यह कन्या मुझे हल चलाते समय पृथ्वी से प्राप्त हुई थी। आपके वीर पुत्र राम ने मेरी प्रतिज्ञा पुरी कर इसको वरण करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है‘‘। साथ ही जनक ने बताया - ‘‘ये मेरी दूसरी बेटी उर्मिला है तथा दो अन्य बेटियाँ मेरे छोटे भाई कुशाध्वज की हैं। बड़ी बेटी का नाम मांडवी और छोटी बेटी का नाम श्रुतकीर्ति है।‘‘ आप लक्ष्मण के लिए मांडवी और शत्रुधन के लिए श्रुतकिीर्ति को स्वीकार करने की कृपा करें। राजा जनक के प्रस्वात को राजा दशरथ ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सीता ने श्रीराम के गले में वरमाला पहनाई। देवतागणों ने फूलों की वर्षा की।
रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।
इसके बाद कुलबुरू वशिष्ठ और शतानन्द जी ने वेद-मंत्रों के उच्चारण के साथ विधिवत् विवाह सम्पन्न्ा कराया। महाराज दशरथ का जनक जी ने विधिवत् स्वागत-सत्कार किया। अब वे बारात लेकर अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। राजा दशरथ, नववधुओं, बारातियों को लेकर कुछ दुर ही गए थे कि अचानक क्रुद्ध परशुराम फरसा और धनुष-बाण लेकर सामने उपस्थित हो गए। उनको देखते ही सब लोगों के मन में मलिनता छा गई। परशुराम क्रोधित होते हुए श्रीराम से बोले - ‘‘राम ! शिव जी के पुराने धनुष को तोड़कर तुम स्वयं को बहुत बड़ा बलवान समझ रहे हो। मैं तुम्हारे अंहकार को नष्ट कर दूँगा।‘‘ उनके क्रोध को देखकर दशरथ ने बहुत अनुनय-विनय से उनको समझाने का प्रयास किया लेकिन परशुराम का क्रोध शान्त नहीं हुआ। परशुराम, राम से पुःन बोले-‘‘मेरे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर दिखाओ। यदि ऐसा नहीं कर सके तो मैं अपने फरसे से तुम्हारा वध कर दूँगा।‘‘ राम ने शान्त भाव से उनसे धनुष लेकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और बोले - ‘‘अब मैं आपकी आज तक की गई तपस्या का प्रभाव नष्ट करता हूँ। साथ ही मनोगति से आकाश में विचरण करने की शक्ति भी नष्ट करता हूँ।‘‘ अब परशुराम ने राम को पहचान लिया और उनके समझ नतमस्तक होकर क्षमा-याचना करने लगे। उन्होंने राम से अनुरोध किया कि वे उनकी मनोगति को नष्ट न करें जिससे वे महेन्द्र पर्वत पर वापस जा सकें। मुस्कराकर राम ने उनकी बात स्वीकार कर ली। अब परशुराम, राम की प्रंशसा करते हुए वापस चले गए। अयोध्या में बारात पहुँच गई। चारों ओर आनन्द का वातावरण छा गया। अयोघ्या का कोना-कोना शंख और मृदंग की ध्वनियों से गूँज उठा। देवतागण हर्षित होकर पुष्प वर्षा कर रहे थे। स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं। रानियों ने पुत्र-वधुओं की आरती उतार कर उन्हें घर में प्रवेश कराया। उस समय राजा दशरथ के महल की शोभा निराली थी। चारों राजकुमार सर्वगुणसम्पन्न्ा पत्नी आनन्दित थे। सीता ने अपने रूप गुण और सेवाभाव से सभी का मन मोह लिया। कोश्ल राज्य में मानों सौभाग्य का आगमन हो गया। दिन-प्रतिदिन सुख-समृद्धि में वृद्धि होने लगी। श्रीराम का यश तीनों लोको में छा गया।
अयोध्या काण्ड
श्रीराम के राज्यभिषेक की तैयारियाँ
कैकेय देश से भरत के मामा युधाजित भरत को ले जाने के लिए अयोध्या पहुँचे। जब उन्हें बारात का समाचार ज्ञात हुआ तो चे भी जनकपुर चले गए। जनकपुर से वापस आने के कुछ दिन बाद राजा दशरथ ने उनके साथ भरत और शत्रुध्न को भेज दिया। वे नाना और मामा के लाड़-प्यार के कारण इच्छा होते हुए भी अपने नगर लौट नहीं पा रहे थे। इस तरह भरत और शत्रुध्न को ननिहाल में रहते हुए कई दिन व्यतीत हो गए इस अयोध्या में राम राज-काज में पिता की सहायता करने लगे। वे सदा प्रजा के हित के विषय में सोचते थे और सदैव सदाचार का पालन करते थे। वे सदा प्रजा के हित के विषय में सोचते थे और सदैव सदाचार का पालन करते थे। वे शूरवीर,पराक्रमी होने के साथ नम्र और विद्वान भी थे। वे बड़ों का आदर करते थे और छोटों से प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे। क्रोध में भी उनकी वाणी कभी कटु नहीं होती थी। ऐसे राम से भला प्रजा कैसे न होती? राम के कुशल व्यवहार और कार्य को देखकर दशरथ भी बहुत संतुष्ट थे। स्वयं वृद्ध होने के कारण उन्होने राम को युवराज बनाने का विचार किया। इस विषय में राजा ने अपने मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श किया। दशरथ ने कैकेयराज और मिथिलानरेश के अलावा सभी मित्र राजाओं को भी विचार-विमर्श के लिए बुलाया। निर्धारित समय पर सभा-भवन में सभी राजागण उपस्थित हुए। राजा के मंत्रिगण और अयोध्यावासी भी वहाँ उपस्थित थे। राजा ने उनके समक्ष राम को युवराज बनाने का प्रस्ताव रखा। सभी ने एकमत से इस बात को स्वीकार कर लिया। सबने राम के गुणों की प्रशंसा की। राजा ने सबको धन्यवाद दिया और घोषित किया कि कल राम का राज्यभिषेक होगा। सभी को इस उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। अब सुमन्त्र द्वारा राम को सभा में बुलाया गया । राजा दशरथ ने राम से कहा - ‘‘प्रजा ने तुम्हें अपना राजा चुना है। सर्वहित में ��ुम राजधर्म का पालन करते हुए इस कुल की मर्यादा की रक्षा करना।‘‘ यह निर्णय कर राजा राजभवन में चले गए। वहाँ उन्होनें राम को बुलाया। उन्होंने राम को समझाते हुए कहा - ‘‘पुत्र, अब मैं वृद्ध हो गया हूँ। मेरे जीवन का अब कोई ठिकाना नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि अब राज-काज तुम सँभालो। शुभ कार्यों में लोग तरह-तरह की बाधाँए पहुँचाने की कोशीश करते हैं इसलिए आज की रात तुम सावधान रहना।‘‘ श्राम ने यह शुभ समाचार अपनी माता कौशल्या को सुनाया। हर्षित होकर माँ ने उनको गले से लगा लिया। रानी ने ब्राह्माणों को बहुत-सा दिया। वे मंगलकलश सजाने लगीं। धीरे-धीरे यह समाचार नगर में फैल गया। सभी हर्षित होकर राज्यभिषेक की तैयारी में लग गए-
राम राज अभिषेक सुनि। हियँ हरषे नर नारि।। लगे सुमंगल सजन सब। बिधि अनुकुल बिचारी।।
कैकेयी का कोप-भवन में जाना
अयोध्या में एक ओर तो राज्याभिषेेक की तैरारियाँ चल रही थीं तथा दूसरी ओर एक षड़यन्त्र रचा जा कहा था। षड़यन्त्र को रचने वाली कैकेयी की मंदबुद्धि दासी मंथरा थी। वह कुबड़ी और बदसूरत होने के साथ-साथ बड़ी ही दुष्ट प्रवृति की थी। राम के राज्यभिषेक का समाचार सुनते ही मंथरा का हृदय जल उठा। वह तुरन्त कैकयी के पास गई और उन्हें भड़काना प्रारम्भ कर दिया। उसने कैकयी से कहा - ‘‘रानी तुम कैसी नादान हो ? तुम्हारे लिए विपत्ति का बीज बोया जा रहा है और तुम निश्ंिचत होकर बैठी हो।‘‘ कैकयी ने आश्चर्यचकित होकर मंथरा से पुछा - ‘‘क्या बात है ? साफ-साफ क्यों नहीं बताती ? राज्य में सब कुशल तो है।‘‘ मंथरा बोली - वैसे सब ठीक है। बस तुम्हारे ही सुखों का अन्त होने वाला है। रात की माता चतुर और गंभीर हैं। उन्होंने अवसर पाकर अपनी बात बता ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज दिया उसे आप बस कौशल्या की ही सलाह समझिए!
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाई निज बात सँवारी।। पठए भरतु भूत ननिअउरें। राम मातु मत जनबा रउरें।।
कौशल्या ने भरत की अनुपस्थ्तिि में राम के राजतिलक के लिए सारी तैयारियाँ करवा लीं।‘‘ यह सुनकर कैकेयी बोली - ‘‘यह तो बड़ी की बात है। मेंरे लिए तो भरत और राम एकसमान हैं। लो, यह हार उपकार में ले लो।‘‘ मंथरा ने हार स्वीकार नहीं किया, वह बोली - ‘‘रानी, आप कितने सरल स्वभाव वाली हैं, अपना अच्छा-बुरा भी नहीं पहचानती हैं। आपको तो पास आपको तो पास आया हुआ संकट भी दिखाई नहीं दे रहा हंै।‘‘ इतना सुनने के बाद भी जब कैकयी पर कुछ असर नहीं हुआ तो मंथरा ने कपट की अनेक कहानियाँ सुनाकर रानी को भड़काया । वह कहने लगी - ‘‘राम के राजा होते ही भरत मारे-मारे घुमेंगे। कौशल्या राजमाता होते ही अपने साथ बुरा व्यवहार करने लगेंगी।‘‘ अब मंथरा की बातों का असर कैकयी पर होने लगा। उसने इस संकट से बचने का उपाय पुछा। म नही मन खुश होकर मंथरा ने कहा - ‘‘एक ही उपाय है। किसी तरह राम को वन भेज दिया जाए और भरत का राज्यतिलक हो जाए। रानी याद कीजिए, जब एक बार राजा दशरथ शंबासुर के विरूद्ध इन्द्र की सहायता के लिए गए थे ओैर आपने युद्ध क्षेत्र में राजा के प्राणों की रक्षा की थी तब राजा ने खुश होकर आपको दो वरदान मँागने के लिए कहा था। जो आपने उस समय नहीं मँागे थे । अब समय आ गया था कि आप वे दोनों वरदान माँग लीजिए। आप कोप-भवन में चली जाइए और जब राजा सौगन्ध खा कर वचन दे दें, तो एक वरदान से भरत का राजतिलक और दूसरे से राम को चैदह वर्ष का वनवास माँग लीजिए।‘‘ मंथरा की बातों में आकर कैकेयी कोप-भवन में नली गई। जब राजा को यह बात ज्ञात हुई तो राजा सहम गए और अपनी प्रिय रानी कैकयी को मनाने के लिए कोप-भवन में गए। राजा बोले - ‘‘हे प्राण प्रिये ! आप क्यों नाराज है ? किसने आपका अपमान किया है ? किस कंगाल को राजा बना दूँ ? मैं राम की सौगन्ध खा कर कहता हूँ कि आप जो कहेंगी उसे पूरा करूँगा।‘‘ जब राजा ने वचन पूरा करने की सौगन्ध खा ली, तो कैकेयी ने दो वरदान माँगे। एक वरदान से भरत का राजतिलक और दूसरा से राम को चैदह वर्ष का वनवास। राम के वनवास की बात सुनकर राजा पर मानो वज्रपात हो गया। वे अचेत हो गए। जब होश आया तो कैकयी को समझाते हुए कहने लगे - ‘‘भरत का राजतिलक तो ठीक है लेकिन राम को वनवास मत भेजो। मेरे राम पर दया करो। उसका क्या अपराध है ?‘‘ लेकिन कैकेयी अपनी बात पर अडिग ही रही। उसने राजा से कहा - ‘‘हे राजन ! आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। राजा शिवि, दधीचि और बलि ने अपने वचन की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया। आप ��त्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। रघुवंशियों के विषय में तो कहा गया है -
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाई।।
लेकिन आप की बात तो रघुवंशियों जैसी नहीं है।‘‘ राजा समझ गए कि अब कुछ नहीं हो सकता। वे रातभर बेहोश वहीं पड़े रहे। प्रातः सुमन्त्र राजमहल में गए जहाँ राजा और कैकयी थे। राजा की दशा देखकर वह काँप गए। वे समझ गए कि यह कोई कैकयी का ही षड़यन्त्र है। राजा के दुःख का कारण पूछने पर कैकयी ने कहा - ‘‘महराज राम को ही अपने मन की बान बताएँगे।‘‘ सुमन्त्र राम को बुला लाए। साथ में लक्ष्मण भी आ गए। राम को देखते ही राजा के ओंठ सूख गए और आँखे आँसुओं से भर गईं। लेकिन वे कुछ बोल नहीं सके। केवल हे राम ! कहकर बेहोश हो गए। राम के पूछने पर कैकेयी ने अपने वरदानों की बात बताई और कहने लगीं -‘‘ पुत्र स्नेह के कारण राजा धर्म संकट में पड़ गए हैं। यदि सम्भव हो तो राजा की आज्ञा का पालन करो।‘‘ राम ने कहा - पिताजी की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए मैं अभी वन को प्रस्थान करता हूँ। आप भरत के रालतिलक की तैयारियाँ कीजिए।‘‘ इसके बाद राम माता कौशल्या के पास गए और उनसे सभी बातें बताईं। यह सुनकर माता के हृदय में भयानक संताप छा गया। वह व्याकुल होकर विलाप करने लगीं। माता कौशल्या को दुःखी देखकर लक्ष्मण क्रोधित होने लगे ! लेकिन राम ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत कराया और कहने लगे - ‘‘मेरे वन जाने की तैयारी करो।‘‘
राम का वन-गमन
माता कौषल्या के पैर छूकर जब राम ने वन ताने की आज्ञा माँगी तो कौशल्या ने कहा - ‘‘पुत्र, मैं तुम्हे वन जाने की अनुमति नहीं दे सकती हूँ। तुम्हारे पिता कैकेयी की बातों में आ गए हैं। तुम्हारा क्या अपराध है जो तुम वन जाओगे ? राजा की आज्ञा उचित नहीं है। तुम उसे मत मानो।‘‘ राम ने माता को समझाते हुए कहा - ‘‘पिताजी की आज्ञा का पालन करना मेरा कत्र्तव्य है। आपको भी उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। आप मुझे वन जाने की अनुमति दे दिजिए।‘‘ उन्होंने लक्ष्मण को समझाया - ‘‘इसमें कैकयी माँ अथवा पिताश्री का कोई दोष नही है। यह सब भाग्यवश हो रहा है।‘‘ इस बात पर लक्ष्मण नाराज होते हुए बोले - ‘‘भाग्य पर भरोसा कायर लोग करते हैं। आप सिंहासन पर विराजमान हों। अगर किसी ने इस बात का विरोध किया तो मैं सारी अयोध्या में आग लगा दूँगा।‘‘ राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा - ‘‘मुझे राज्य का मोह नहीं है। मेरे लिए वन अथवा राजसिंहासन एकसमान हैं। मैं रघुवशियों के अनुकुल व्यव्हार करूँगा।‘‘ लक्ष्मण कुछ कह न सके। कौशल्या व्याकुल होकर राम को अनेक प्रकार से समझाया और वन जाने की आज्ञा माँगी। माता ने विवश होकर कहा - ‘‘पुत्र जाओ धर्म तुम्हारी रक्षा करे। मेरे सभी पुण्य कर्मों का फल तुम्हें प्राप्त हो जाए। मेरा रोम-रोम तुम्हें आर्शीवाद दे रहा है।‘‘ माता से आज्ञा प्राप्त कर राम सीता के पहुँचे। सीता से सब बातें बताकर, उन्होंने कहा - ‘‘मेरी अनुपस्थिति में तुम माता-पिता की सेवा करना। भरत के साथ कभी भी शत्रुवत् व्यवहार न करना। अब हम लोग चैदह वर्ष बाद मिलेंगे।‘‘ इतना सुनकर सीता व्याकुल हो गईं। उन्होने राम से कहा - ‘‘पिताजी ने मुझे शिक्षा दी थी कि सुख-दुःख में हमेशा पति के साथ रहना। इसलिए मैं भी आपके साथ रहना। इसलिए मैं भी आपके साथ वन चलँूगी।‘‘ राम ने सीता को अनेक प्रकार से समझाया लेकिन सीता को साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। अब लक्ष्मण भी साथ जाने के लिए अनुरोध करने लगे। अंत में, राम ने उन्हें भी साथ ले जाने का निश्चय किया । राम ने लक्ष्मण से कहा - ‘‘माता से आज्ञा लेकर गुरु वशिष्ठ से दिव्य अस्त्र-शस्त्र ले आओ।‘‘ अब राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पिता से वन-गमन की आज्ञा माँगने के लिए उनके पास गए। वहाँ राजा, युमित्रा और कैकयी के साथ बैठे हुए थे। वे बहुत दुःखी थे। जब राम ने उनका पैर छूकर वन जाने की अनुमति माँगी तो राजा कुछ बोल न सके। वे बेहोश हो गए। होश आने पर उन्होंने कहा - ‘‘पुत्र, तुम वन मत जाओ। कैकेयी के कारण मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी मैंने ऐसा कह दिया। तुम अयोध्या का राजा बनकर राज सँभालो।‘‘ रात ने कहा-‘‘आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो आपका वचन झूठा होगा। रधुकुल की परम्परा भी नष्ट होगी। मुझे राज्य का तनिक भी मोह नही है। मुझे वन जाने दिजिए।‘‘ राम ने कैकयी द्वारा लाए गए वल्कल वस्त्र धारण कर दिए। सीता ने भी तपस्विनी के वस्त्र पहन लिए। उनकी ऐसी अवस्था देखकर सारे नगरवासी कैकेयी और दशरथ को भला-बुरा कहने लगे। सभी दुःख से व्याकुल होकर विलाप करने लगे। माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को समझाया - ‘‘पुत्र, राम और सीता की सेवा करना तथा उनकी रक्षा करना।‘‘ सबकी अनुमति लेकर राम, लक्ष्मण और सीता राजमहल से बाहर आ गए। सभी नगरवासी,स्त्री, पुरुष रोते-बिलखते उनके पीछे-पीछे चलने लगे। सुमन्त्र ने उन तीनों को रथ पर बिठाया और वन की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम को वन जाते हुए देखकर सभी अयोध्यावासी व्याकुल होकर रथ के पीछे दौड़ने लगे। राजा दशरथ और माता कौशल्या का दुःख तो अवर्णनी था। हा राम! हा राम! हा लक्ष्मण! केे स्वर चारों दिशाओं में गूँजने लगे। जब राम का रथ आँखों से ओझल हो गया तो राजा दशरथ बेसुध होकर भूमि पर गिर पड़े। रानियाँ उन्हें कौशल्या के महल में ले गईं। पूरी अयोध्या शोक में डूब गई। अपने प्रति प्रजा के प्रेम को देखकर श्री राम का दयालु हृदय करुणा से भर गया आया। प्रजा उनके रथ के पीछे-पीछे चली आ रही थी। वे रथ से नीचे उतर गए और नगरवासियों के साथ-साथ पैदल चलने लगे। राम ने लोगो को बहुत समझाया, बहुत उपदेश दिया लेकिन प्रजा प्रेमवश लौट नहीं रही थी। सायंकाल होते-होते वे तमसा नदी के किनारे पहँुच गए। वहाँ पर उन्होंने रात को विश्राम करने का निश्चय किया। वहीं भूमि पर तिनके की शैय्या पर राम और सीता विश्राम करने लगे। लक्ष्मण और सुमन्त्र उनकी रक्षा हेतु पहरा देने लगें। शोक और थकान के कारण सभी नगरवासी सो गए। जब रात्रि के दो प्रहर बीत गए तब राम जी ने सुमन्त्र से चुपचाप रथ ले चलने को कहा। सुमन्त्र ने ऐसा ही किया। सबेरा होते ही नगरवासियों ने देखा कि श्रीराम चले गए। सब लोग ‘हा राम ! हा राम ! पुकारते हुए चारों ओर दौड़ने लगे। इस प्रकार लोग प्रलाप करते हुए व संताप से भरे हुए अयोध्या लौंट आए।
शृगंवेापुर में निषादराज गुह द्वारा आतिथ्य
स्ुाबह होने तक राम, लक्ष्मण और सीता बहुत दूर जा चुके थे। अब वे गोमती नदी के किनारे पहुँच गए। गोमती नदी पार करके वे कुछ ही देर में सई नदी के तट पर पहँुच गए। यहीं पर कोशल राज्य की सीमा समाप्त होती थी। राम, लक्ष्मण और सीता सहित रथ से उतरे और वहाँ खड़े होकर उन्होंने अपनी मातृभूमि को प्रणाम किया, और माता-पिता तथा अयोध्या को याद कर करुण स्वर में सुमन्त्र से बोले -‘‘अब न जाने कब अपने माता-पिता से मिलने और सरयू के तट पर भ्रमण का अवसर मिले।‘‘ तभी सीमा पर रहने वाले-से लोग वहँा एकत्र को गए। पूरी बात ज्ञात होने पर वे दशरथ और कैकयी को धिक्कारने लगे तथा स्वयं राम के साथ चलने को तैयार हो गए। उनकी प्रीति देखकर राम की आँखंे भर आईं। उन्होेंने सबको समझाया और आगे चल पड़े। संध्या होते-होते वे गंगा नदी के किनारे बसे शृंगवेरपुर गाँव में जा पहुँचे। यहँा निषादों के राजा गुह रहते थे। जब उन्होंने यह समाचार सुना तो वे आनन्दित होकर अपने प्रियजनों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर राम के स्वागत के लिए पहँुचे। दण्डवत् करके वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को देखने लगे। राम ने उन्हें गले से लगा लिया��� गुह ने राम से कह-‘‘आप कृपा करके शृंगवेरपुर में पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए जिससे लोग मेरे सौभाग्य की सहारना करें।‘‘ राम ने गुह से कहा - ‘‘तुम्हारी बात उचित है परन्तु पिता की आज्ञा के अनुसार मेरा गाँव में निवास मे निवास करना उचित नहीं हैं। मुझे वन में रहना है।‘‘ यह सुनकर निषादरात गुह के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। राम वहाँ तृण शैय्या पर ही सोए। दूसरे दिन राम ने सुमन्त्र से अयोध्या वापस जाने के लिए कहा। उन्होनें पिता और माताओं को अपना प्रणाम कहा। उन्होनें सुमन्त्र से कहा - ‘‘भरत से कहना कि वे सभी माताओं के साथ समान व्यवहार करें और पिताश्री का ध्यान रखें।‘‘ इस तरह समझदार राम ने सुमन्त्र को अयोध्या वापस भेज दिया। अब राम ने निषादराज गुह से विदा ली और गंगा पार कर वत्सदेश में पहँुच गए। वे दुर्गम मार्गो पर चलते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। आगे राम, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण चल रहे थे। संध्या होने पर वे एक वृक्ष के नीचे रुक गए। वहाँ उन्होनें कंदमुल फल खाए। राम दुःखी होकर लक्ष्मण से कहने लगे - ‘‘मुझे माता चिंता है। मैं उनकी सेवा नहीं कर पारा, इस बात का मुझे दुःख है। तुम अयोध्या वापस लौट जाओ और माता की सेवा करना।‘‘ उन्हांेने रात्रि वही पर व्यतीत की। इस तरह पद यात्रा करते हुए वे गंगा-यमुना के संगम पर स्थित भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँचे। चित्रकुट की प्राकृतिक शोभा से आकर्षित होकर राम ने कुछ दिन वहाँ बिताने का निश्चय किया। लक्ष्मण ने मंदाकिनी नदी के किनारे एक पर्णकुटी बनाई। राम , लक्ष्मण और सीता वहीं रहने लगे।
राजा दशरथ के प्राण त्याग
इधर जब सुमन्त्र अयोध्या वापस गए तो अयोध्यावासी तथा राजा-रानी सभी लोग उनसे राम, लक्ष्मण और सीता के विषय में पुछने लगे। सभी दुःख से व्याकुल होकर रो-रो कर राजा को बताया। राजा हा राम! हा जानकी ! कहकर विलाप करने लगे और सुमन्त्र विलाप करने लगे और सुमन्त्र से कहने लगे - ‘‘मुझे भी वहीं पहुँचा दो जहाँ राम , सीता और लक्ष्मण हैंै। नहीं तो अब प्राण निकलना ही चाहते हैं।‘‘
सखा राम सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ। नाहि त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ।।
ऐसा कहकर राजा पृथ्वी पर गिर पड़े। वे दुःखी होकर तड़पने लगे। सभी रानियाँ विलाप करके रो रही थीं। राजा के महल में कोहराम मच गया। राजा के प्राण कण्ठ में आ गए। वह रात युग के समान बड़ी हो गई थी। तभी राजा को अंधे तपस्वी श्रवण कुमार के पिता का शाप याद आ गया। उन्हानें कौश्ल्या से कहा-‘‘यह हमारे विवाह से पहले की घटना है जो तम्हें ज्ञात नहीं हैं। वर्षा ऋतु में मैं एक बार सरयु नदी के किनारे शिकार खलने गया था। अचानक मुझे नदी में किसी जानवर के पानी पीने की आवाज सुनाई दी। मैंने आवाज की ओर निशाना साध का बाण चला दिया। तभी मुझे किसी आदमी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। मैं घबराकर वहाँ गया तो देखा एक बालक घायल अवस्था में पड़ा है। अंतिम साँसे लेते हुए उसने मुझे बताया कि मेरे अंधे माता-पिता के प्यासे हैं। उन्हें पानी पिला दीजिए।‘‘ मैं पानी लेकर उसके माता-पिता के पास गया। उन्होेेंने मुझे अपना बेटा समझकर कहा - ‘‘बेटा श्रवण इतनी देर कहाँ लगा दी ?‘‘ मेरे मुँह से तो आवाज ही नहीं निकल रही थी। मैनें धीमी आवाज में कहा - मैं श्रवण कुमार नहीं अयोघ्या का राजा दशरथ हूँ। मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है। श्रवण कुमार मेरे बाण से मारा गया।‘‘ इतना सुनते ही वे करूण स्वर में विलाप करने लगे। उन्होंनें मुझे शाप - ‘‘हे राजन ! पुत्र के वियोग में जैसे आज हमारे प्राण निकल हैं वैसे ही तड़प-तड़प कर तुम्हारी भी मृत्यु होगी।‘‘ ऐसा कहकर उन दोनों ने प्राण त्याग दिए। ‘‘कौशल्या ऐसा लगता है अब वह शाप सच होने का समय आ गया है। मेरे प्रााण प्यारे राम। तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता।‘‘ राम, राम कहकर विलाप करते हुए राजा दशरथ ने पुत्र के वियोग में शरीर त्याग दिया -
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम। तनु परिहरि सघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।
To be continue...
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parwatidasisblog · 2 years
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Kabir Prakat Diwas
कबीर,
तीन लोक सब राम जयप हैं, जान मुक्ति को धाम।
रामचंद्र वशिष्ठ गुरु किया, तीन कहि सुनायो नाम।।
कबीर प्रकट दिवस
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anitajangra340 · 26 days
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’’गुरू बिन मोक्ष नहीं‘‘
प्रश्न :- क्या गुरू के बिना भक्ति नहीं कर सकते?
उत्तर :- भक्ति कर सकते हैं, परन्तु व्यर्थ प्रयत्न रहेगा।
प्रश्न :- कारण बताऐं?
उत्तर :- परमात्मा का विधान है जो सूक्ष्मवेद में कहा है :-
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोंनो निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
कबीर, राम कृष्ण से कौन बड़ा, उन्हों भी गुरू कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरू आगे आधीन।।
कबीर, राम कृष्ण बड़े तिन्हूं पुर राजा। तिन गुरू बन्द कीन्ह निज काजा।।
भावार्थ :- गुरू धारण किए बिना यदि नाम जाप की माला फिराते हैं और दान देते हैं, वे दोनों व्यर्थ हैं। यदि आप जी को संदेह हो तो अपने वेदों तथा पुराणों में प्रमाण देखें।
श्रीमद् भगवत गीता चारों वेदों का सारांश है। गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में अर्जुन ने कहा कि हे श्री कृष्ण! मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ। गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके काल ब्रह्म ने अर्जुन से कहा कि तू मेरा भक्त है। पुराणों में प्रमाण है कि श्री रामचन्द्र जी ने ऋषि वशिष्ठ जी से नाम दीक्षा ली थी और अपने घर व राज-काज में गुरू वशिष्ठ जी की आज्ञा लेकर कार्य करते थे। श्री कृष्ण जी ने ऋषि संदीपनि जी से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया तथा श्री कृष्ण जी के आध्यात्मिक गुरू श्री दुर्वासा ऋषि जी थे।
कबीर परमेश्वर जी हमें समझाना चाहते हैं कि आप जी श्री राम तथा श्री कृष्ण जी से तो किसी को बड़ा अर्थात् समर्थ नहीं मानते हो। वे तीन लोक के मालिक थे, उन्होंने भी गुरू बनाकर अपनी भक्ति की, मानव जीवन सार्थक किया।
इससे सहज में ज्ञान हो जाना चाहिए कि अन्य व्यक्ति यदि गुरू के बिना भक्ति करता है तो कितना सही है? अर्थात् व्यर्थ है।
 गुरू के बिना देखा-देखी कही-सुनी भक्ति को लोकवेद के अनुसार भक्ति कहते हैं। लोकवेद का अर्थ है, किसी क्षेत्रा में प्रचलित भक्ति का ज्ञान जो तत्वज्ञान के विपरीत होता है। लोकवेद के आधार से यह दास (संत रामपाल दास) श्री हनुमान जी, बाबा श्याम जी, श्री राम, श्री कृष्ण, श्री शिव जी तथा देवी-देवताओं की भक्ति करता था। हनुमान जी की भक्ति में मंगलवार का व्रत, बुन्दी का प्रसाद बाँटना, स्वयं देशी घी का गिच चुरमा खाता था, बाबा हनुमान को डालडा वनस्पति घी से बनी बुन्दी का भोग लगाता था। हरे राम, हरे कृष्ण,
कृष्ण-कृष्ण ��रे-हरे का मन्त्र जाप करता था। किसी ने बता दिया कि :-
ओम् नाम सबसे बड़ा, इससे बड़ा न कोय।
ऊँ नाम का जाप करे, तो शुद्ध आत्मा होय।।
इस कारण से ओम् नाम का जाप शुरू कर दिया। ओम् नमो शिवायः, यह शिव का मन्त्र जाप करता था। ओम् भगवते वासुदेवायः नमः, यह विष्णु जी का जाप करता था। तीर्थों पर जाना, दान करना, वहाँ स्नान करना, यह भी लोकवेद के आधार से करने जाता था।
जैसे घर में सुख होते थे तो मैं मानता था कि ये सब मेरी उपरोक्त भक्ति के कारण हो रहे हैं। जैसे कक्षा में पास होना, विवाह होना, पुत्र तथा पुत्रियों का
जन्म होना, नौकनी लगना। ये सर्व सुख उपरोक्त साधना से ही मानता था। कबीर
परमेश्वर जी ने सूक्ष्म वेद में कहा है :-
कबीर, पीछे लाग्या जाऊं था, मैं लोक वेद के साथ।
रास्ते में सतगुरू मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।
भावार्थ है कि साधक लोकवेद अर्थात् दन्त कथा के आधार से भक्ति कर रहा था। उस शास्त्रविरूद्ध साधना के मार्ग पर चल रहा था। रास्ते में अर्थात् भक्ति मार्ग में एक दिन तत्वदर्शी सन्त मिल गए। उन्होंने शास्त्राविधि अनुसार शास्त्रा प्रमाणित साधना रूपी दीपक दे दिया अर्थात् सत्य शास्त्रानुकूल साधना का ज्ञान कराया तो जीवन नष्ट होने से बच गया। सतगुरू द्वारा बताये तत्वज्ञान की रोशनी में पता चला कि मैं गलत भक्ति कर रहा था। श्री मद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23,24 में कहा है कि शास्त्र विधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं, उनको न तो सुख होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही गति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है। फिर गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि अर्जुन! इससे तेरे लिए कृर्तव्य और अकृर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं।
जो उपरोक्त साधना यह दास (संत रामपाल दास) किया करता था तथा पूरा हिन्दू समाज कर रहा है, वह सब गीता-वेदों में वर्णित न होने से शास्त्र विरूद्ध साधना हुई जो व्यर्थ है।
कबीर, गुरू बिन काहु न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छडे़ मूढ़ किसाना।
कबीर, गुरू बिन वेद पढै़ जो प्राणी, समझै न सार रहे अज्ञानी।।
इसलिए गुरू जी से वेद शास्त्रों का ज्ञान पढ़ना चाहिए जिससे सत्य भक्ति की शास्त्रानुकूल साधना करके मानव जीवन धन्य हो जाए।
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hindisoulveda · 2 months
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पुल पहले पार करने का अधिकार किसे है?
"कभी-कभार सही होने के जुनून में, हम लक्ष्य से चूक जाते हैं और हमारी हार होती है।"
एक दिन वशिष्ठ ऋषि के पुत्र, विद्वान ऋषि, शक्ति–मुनि, जंगल में एक संकरे पुल पर चले ही थे, जब उन्होंने एक शक्तिशाली राजा को पुल की दूसरी ओर से आते देखा। ये इक्ष्वाकु वंश के राजा कलमाशपदा थे। वे दिनभर शिकार करके, थके प्यासे अपने महल जा रहें थे। 
- लेखक देवदत्त पटनायक
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bhaktibharat · 1 year
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🐚 आमलकी एकादशी व्रत कथा - Amalaki Ekadashi Vrat Katha
धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले: हे जनार्दन! आपने फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का सुंदर वर्णन करते हुए सुनाया। अब आप फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए।
[बृज मे *रंगभरनी एकादशी*, श्रीनाथद्वारा मे *कुंज एकादशी* तथा खाटू नगरी मे *खाटू एकादशी* भी कहा जाता है]
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श्री भगवान बोले: हे राजन्, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा इसके प्रभाव से एक हजार गौ दान का फल प्राप्त‍ होता है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। हे राजन्, अब मैं आपको महर्षि वशिष्ठ जी द्वारा राजा मांधाता को सुनाई पौराणिक कथा के बारे मैं बताता हूँ, आप इसे ध्यानपूर्वक सुनें।..
..*आमलकी एकादशी व्रत कथा को पूरा पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें* 📲 https://www.bhaktibharat.com/katha/amalaki-ekadashi-vrat-katha ▶ *YouTube* https://www.youtube.com/watch?v=m3HmC1h6YWg
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🐚 एकादशी - Ekadashi 📲 https://www.bhaktibharat.com/festival/ekadashi
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leenakumbhkar · 2 months
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17 फरवरी 2024 : संत रामपाल जी महाराज का बोध दिवस
सर्वशक्तिमान परमेश्वर समय-समय पर अमर लोक से आकर इस मृत्युलोक में अवतरित होते हैं। वर्तमान वे महान संत रामपाल जी महाराज के रूप में दिव्य लीला कर रहे हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 17 फरवरी का दिन सतगुरु रामपाल जी महाराज के बोध दिवस के रूप में मनाया जाता है। सरकारी नौकरी करने वाले संत रामपाल जी के जीवन में 37 वर्ष की आयु में एक ऐसा मोड़ आया कि एक महान संत ने उनकी राह बदल दी। जी हाँ स्वामी रामदेवानंद जी महाराज के तत्वज्ञान से प्रभावित होकर 17 फरवरी 1988 को संत रामपाल जी ने अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानंद जी से दीक्षा प्राप्त की। यह हिंदू कैलेंडर के फाल्गुन महीने की अमावस्या का दिन था।
सतगुरू मिलै तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदै समाना।
चल हँसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।
बोध दिवस का महत्व:-🌼
संतमत में बोध दिवस भक्त का आध्यात्मिक जन्मदिन होता है। परमेश्वर कबीर साहेब कहते हैं, वह दिन शुभ है जब एक साधक ने सतगुरु को पाया और नाम-दीक्षा ली, क्योंकि दीक्षा से पहले जीवन के सभी दिन व्यर्थ थे।
कबीर, जा दिन सतगुरु भेटियां, सो दिन लेखे जान।
बाकी समय गंवा दिया, बिना गुरु के ज्ञान।।
जब कोई साधक सतगुरु की शरण में आता है, तो वह उनके ज्ञान को ग्रहण कर मनुष्य के स्थान पर देवता बनने की राह में लग जाता है। वह दिन उसके जीवन का विशेष दिन होता है क्योंकि उस दिन साधक को जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझ में आता है। मानव जन्म की सच्ची अनुभूति होने के कारण इस दिन को बोध दिवस कहा जाता है।
बोध के लिए सतगुरु क्यों जरूरी हैं?
परमेश्वर कबीर साहेब ने कहा है:
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
गुरु के बिना यदि नाम जाप की माला फिराते (नाम का जाप) हैं और दान देते हैं, वे दोनों व्यर्थ हैं। यदि आपको संदेह हो तो वेदों और पुराणों में प्रमाण देखें।
• श्री राम और श्री कृष्ण तीनों लोकों के मालिक थे, उन्होंने भी गुरु बनाकर भक्ति की और मानव जीवन सार्थक किया।
• पुराणों में प्रमाण है कि श्री रामचन्द्र जी ने ऋषि वशिष्ठ जी से नाम दीक्षा ली थी और अपने घर व राज-काज में गुरू वशिष्ठ जी की आज्ञा लेकर कार्य करते थे। श्री कृष्ण जी ने ऋषि संदीपनि जी से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया तथा श्री कृष्ण जी के आध्यात्मिक गुरू श्री दुर्वासा ऋषि जी थे।
लोकवेद के आधार पर शास्त्रविरूद्ध भक्ति व्यर्थ हैं!
कबीर, पीछे लाग्या जाऊं था, मैं लोक वेद के साथ।
रास्ते में सतगुरू मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।
गुरु के बिना देखा-देखी कही-सुनी भक्ति को लोकवेद कहते हैं। यह शास्त्रविरूद्ध ज्ञान होता है जैसे कि:
• हनुमान जी की भक्ति: मंगलवार का व्रत, बूंदी का प्रसाद, ओम् नाम का जाप, आदि।
• शिव जी की भक्ति: ओम् नमो शिवायः मंत्र का जाप।
• विष्णु जी की भक्ति: ओम् भगवते वासुदेवायः नमः मंत्र का जाप।
सतगुरु शास्त्रविधि अनुसार शास्त्र प्रमाणित साधना रूपी दीपक देकर जीवन को नष्ट होने से बचाते हैं। सतगुरु की शरण में जाने से पहले उपरोक्त साधना संत रामपाल दास किया करते थे तथा पूरा हिन्दू समाज कर रहा है, जोकि गीता-वेदों में वर्णित न होने से शास्त्र विरूद्ध साधना हैं यानी व्यर्थ है।
कबीर, गुरू बिन काहु न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छडे़ मूढ़ किसाना।
कबीर, गुरू बिन वेद पढै़ जो प्राणी, समझै न सार रहे अज्ञानी।।
इसलिए सतगुरु का महत्व है। गुरु से शास्त्रानुकूल भक्ति की साधना करके मानव जीवन धन्य हो जाता है।
संत रामपाल जी महाराज का जीवन परिचय:-🌼
संत रामपाल जी महाराज समस्त सतलोक आश्रमों के संचालक हैं जो पवित्र शास्त्रों के अनुसार कबीर भगवान का सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। नास्त्रेदमस जी ने अपनी भविष्यवाणी में लिखा है कि स्वतंत्रता के 4 वर्ष बाद 1951 में भारत में एक महान संत का जन्म होगा जो पूरे विश्व को नये आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित कराएगा। उन्होंने 1994 से 1998 तक गांव-गांव, नगर-नगर में घर-घर जाकर आध्यात्मिक प्रवचनों के माध्यम से सत्संग किया। 1999 में हरियाणा के रोहतक जिले के करौंथा में सतलोक आश्रम करौंथा की स्थापना कर उन्होंने प्रत्येक महीने की पूर्ण मासी और अमावस्या को आश्रम में सत्संग समारोह करना प्रारंभ कर दिया।
संत रामपाल जी महाराज का आरंभिक जीवन और शिक्षा:- 📓
रामपाल जी का जन्म 8 सितंबर 1951 को हरियाणा के सोनीपत जिले के धनाना गांव में हुआ था। उन्होंने 1973 में सिविलइंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और हरियाणा सरकार में जूनियर इंजीनियर के रूप में काम करना शुरू किया।
संत रामपाल जी की आध्यात्मिक यात्रा :-
• 1988 में संत रामपाल जी ने स्वामी रामदेवानंद से दीक्षा ली और आध्यात्मिकता में रुचि लेने लगे।
• उन्होंने भगवत् गीता, कबीर सागर, गरीबदास जी रचित सत ग्रंथ, और सभी पुराणों सहित कई आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया।
• संत रामपाल जी ने सतज्ञान को शास्त्रों के प्रमाण सहित प्रस्तुत किया।
संत रामपाल जी महाराज को नाम दीक्षा देने का आदेश
• 1993 में स्वामी रामदेवानंद ने संत रामपाल जी को उपदेश देना शुरू करने के लिए कहा।
• 1994 में स्वामी रामदेवानंद ने संत रामपाल जी को अपना उत्तराधिकारी चुना।
• संत रामपाल जी ने हरियाणा के विभिन्न गांवों और शहरों में भ्रमण करके सत ज्ञान जन जन तक पहुंचाकर लोकप्रियता प्राप्त की।
• 1995 में उन्होंने जूनियर इंजीनियर के रूप में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूर्णकालिक रूप से आध्यात्मिक कार्य में जुड़ गए।
• आज सन्त रामपाल जी महाराज के लाखों अनुयायी हैं जो भारत और दुनि��ा भर में फैले हुए हैं।
संत रामपाल जी के साथ हुए अनर्गल विवाद:-
• संत रामपाल जी की बढ़ती लोकप्रियता से चिढ़कर नकली संतो ने उनके ज्ञान को अपनाने की जगह उल्टे उन पर कई आरोप लगाए, जिनमें धार्मिक भावनाओं को आहत करना जैसे आरोप शामिल हैं।
• 2014 में उनके अनुयायियों पर पुलिस ने हमला कर दिया, जिसमें कई लोग घायल हुए और पुलिस की आँसू गैस से छह लोगों की मौत हो गई।
• संत रामपाल जी 2014 से ही जेल लीला में हैं पर जेल में रहकर भी वे सतज्ञान का संचार कर रहे हैं।
संत रामपाल जी महाराज का सच्चा ज्ञान और बुराइयों का समूल नाश
आज पूरी दुनिया में बुराइयाँ बड़े स्तर पर फैली हुई हैं। नशा, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, रिश्वतखोरी, चोरी, ठगी, परस्त्री गमन, भ्रष्टाचार, जातीय भेदभाव, धार्मिक भेदभाव, हिंसा, लड़ाई झगड़े आदि बुराइयाँ समाज को कैंसर की तरह खोखला कर रही हैं। लेकिन संत रामपाल जी महाराज का सच्चा ज्ञान इन बुराइयों का समूल नाश करने में सक्षम है। उनके ज्ञान से प्रेरित होकर लाखों लोग इन बुराइयों को त्यागकर सदाचारी जीवन जी रहे हैं। संत रामपाल जी महाराज धार्मिक ग्रंथों से सच्चे ज्ञान का प्रचार कर रहें हैं। वे बताते हैं कि इन बुराइयों से बचने का एकमात्र तरीका है परमेश्वर की सच्ची भक्ति करना। सच्ची भक्ति केवल नाम दीक्षा से प्राप्त होती है। नाम दीक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को परमेश्वर का नाम दिया जाता है। परमेश्वर का नाम जपने से व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचार आते हैं और वह बुराइयों से दूर रहता है और उसके पुण्यों में वृद्धि होती हैं।
संत रामपाल जी महाराज के ज्ञान से समाज में सकारात्मक बदलाव आ रहे है। लोग सदाचारी जीवन जीने लगे हैं और समाज में शांति और प्रेम का माहौल बन रहा है। यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं जो साबित करते हैं कि कैसे संत रामपाल जी महाराज का ज्ञान बुराइयों का समूल नाश कर रहा है:
• नशा: संत रामपाल जी महाराज नशे के खिलाफ सख्त हैं। वे कहते हैं कि नशा एक बहुत बड़ी बुराई है जो व्यक्ति के जीवन को तबाह कर देता है। उनके ज्ञान से प्रेरित होकर लाखों लोगों ने नशा छोड़ दिया है।
• दहेज प्रथा: दहेज प्रथा एक सामाजिक बुराई है जो लड़कियों और उनके परिवारों पर बहुत दबाव डालती है। संत रामपाल जी महाराज दहेज प्रथा के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि दहेज प्रथा एक अपराध है और इसे समाज से मिटाना चाहिए। उनके ज्ञान से प्रेरित होकर कई लोगों ने दहेज प्रथा को त्याग दिया है।
• भ्रूण हत्या: भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ा पाप है। संत रामपाल जी महाराज भ्रूण हत्या के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि भ्रूण हत्या एक हत्या है और इसे किसी भी कीमत पर ख़त्म किया जाना चाहिए। उनके ज्ञान से प्रेरित होकर कई लोगों ने भ्रूण हत्या करने का विचार त्याग दिया है।
• रिश्वतखोरी: रिश्वतखोरी एक सामाजिक बुराई है जो समाज को कमजोर करती है। संत रामपाल जी महाराज रिश्वतखोरी के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि रिश्वतखोरी एक अपराध है और इसे समाज से मिटाना चाहिए। उनके ज्ञान से प्रेरित होकर कई लोगों ने रिश्वत लेने और देने से मना कर दिया है।
यहां केवल कुछ उदाहरण मात्र हैं। संत रामपाल जी महाराज का ज्ञान सभी बुराइयों का समूल नाश करने में सक्षम है और कर रहा है। यदि आप भी इन बुराइयों से मुक्ति चाहते हैं, तो आपको संत रामपाल जी महाराज का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उनसे नामदीक्षा लेकर अपना कल्याण कराना चाहिए। संत रामपाल जी महाराज कलयुग में फिर से सतयुग जैसा माहौल खड़ा करने में प्रयासरत हैं।
उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम, फिरता दाने दाने नू।
सर्व कलां सतगुरु साहेब की, हरि आए हरियाणे नू।।
बोध दिवस समारोह 2024 :-
इस साल 17, 18, 19, 20 फरवरी 2024 को जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी का बोध दिवस मनाया जा रहा है। इस पावन अवसर पर निःशुल्क विशाल भंडारा, निःशुल्क नाम दीक्षा व 17 से 20 फरवरी तक 4 दिवसीय खुले पाठ का आयोजन किया जा रहा है। साथ ही, 20 फरवरी को संत रामपाल जी महाराज के सत्संग का विशेष प्रसारण साधना टीवी चैनल पर सुबह 9:15 बजे (IST) पर अवश्य देखें। वहीं इस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण आप हमारे निम्न सोशल मीडिया Platform पर भी देख सकते हैं
Facebook page:- Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj
YouTube:- Sant Rampal Ji Maharaj
Twitter:- @SaintRampalJiM
आयोजन स्थल हैं :
1. Satlok Ashram Dhanana Dham, Sonipat (Haryana)
2. Satlok Ashram Mundka (Delhi)
3. Satlok Ashram Dhuri (Punjab)
4. Satlok Ashram Sojat (Rajasthan)
5. Satlok Ashram Shamli (Uttar Pradesh)
6. Satlok Ashram Kurukshetra (Haryana)
7. Satlok Ashram Bhiwani (Haryana)
8. Satlok Ashram Khamano (Punjab)
9. Satlok Ashram Dhanusha (Nepal)
10. Satlok Ashram Betul (Madhya Pradesh)
संत रामपाल जी महाराज जी से निःशुल्क नाम दीक्षा लेने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें ⬇️
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