Tumgik
gitaacharaninhindi · 4 days
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32. मन की शांति की आधारशिला
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘कर्मयोग में, बुद्धि निश्चयात्मिका होती है और जो अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदोंवाली होती है’’ (2.41)।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि समत्व ही योग है, जो दो ध्रुवों, जिनका सामना हम जीवन में करते हैं, जैसे सुख और दु:ख; जीत और हार और लाभ और हानि का मिलन है। कर्मयोग इन ध्रुवों को पार करने का मार्ग है, जो अंतत: एक निश्चयात्मिका बुद्धि में परिणत होता है। दूसरी ओर, एक अस्थिर बुद्धि हमें मन की शांति से वंचित कर देती है (2.48 एवं 2.38)।
हमारी सामान्य धारणा यह है कि जब हम सुख, जीत और लाभ प्राप्त करते हैं तब मन की शांति अपने आप आ जाती है, लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग के अभ्यास से उत्पन्न एक निश्चयात्मिका बुद्धि हमें ध्रुवीयताओं को पार करने में मदद करके मन की शांति देती है।
एक अस्थिर बुद्धि विभिन्न स्थितियों, परिणामों और लोगों को अलग तरह से देखती है। अपने कार्यस्थल पर, हम एक मानदंड अपने से नीचे के लोगों पर और दूसरा अपने से ऊपर के लोगों पर लागू करते हैं। बच्चों में समत्व विकसित नहीं हो पाता है जब वे देखते हैं कि परिवार में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए अलग-अलग मानदंड लागू होते हैं, जहां हमारे पास प्रियजनों के लिए कुछ नियम होते हैं और दूसरों के लिए कुछ और होते हैं।
अपने दैनिक जीवन में हम धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, हठधर्मिता आदि जैसे साझा मिथकों के शिकार होते हैं। वे हमारे दिमाग में कच्ची उम्र के प्रभावशाली अवस्था में डाले गए थे और वे लम्बे समय तक हमें विभाजित करते रहते हैं। इन साझा मिथकों में से प्रत्येक के दो पक्षों के लिए हम अलग-अलग तरीके से प्रभावित होते हैं।
अस्थिर बुद्धि के साथ, हमारे पास अपनी गलतियों को आंकने के लिए एक मानदंड है और दूसरों को आंकने के लिए कुछ और मानदंड हैं। मदद मांगते समय और मदद करते समय, हम अलग-अलग मुखौटा लगाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग के मार्ग पर चलने से समत्व के योग्य एक निश्चयात्मिका बुद्धि प्राप्त होती है, जो मन की शांति की आधारशिला है।
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gitaacharaninhindi · 9 days
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31. छोटे प्रयास से कर्मयोग में बड़ा ला��
श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि कर्मयोग का थोड़ा सा भी साधन परिणाम देते हैं और यह धर्म हमें बड़े भय से रक्षा प्रदान करता है (2.40)। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहां सांख्य योग शुद्ध जागरूकता है, वहीं कर्मयोग में प्रयास करना पड़ता है।
यह उन साधकों के लिए भगवान श्रीकृष्ण का  आश्वासन है, जिन्होंने अभी-अभी अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू की है और जो इस प्रयास को कठिन पाते हैं। श्रीकृष्ण हमारी कठिनाई को समझते हैं और हमें विश्वास दिलाते हैं कि एक छोटा सा प्रयास भी अद्भुत परिणाम दे सकता है। वह हमें निष्काम कर्म और समत्व के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
एक तरीका यह है कि श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण द्वारा बताये गए कर्मयोग का अभ्यास शुरू करें। समय के साथ, जब हम कर्मयोग के नजरिये से अपने अनुभवों को देखने का अभ्यास करते हैं, हमारी अनुभूतियां और गहरी होती जाती हैं जबतक हम अपनी अंतरात्मा तक नहीं पहुंच जाते।
एक वैकल्पिक तरीका यह है कि हम अपने डर को समझें और समझें कि कर्मयोग का अभ्यास उन्हें कैसे दूर कर सकता है। डर मूलत: हमारी आंतरिक अपेक्षाओं और वास्तविक दुनिया की विसंगति का परिणाम है। कर्मयोग हमें निष्काम कर्म के बारे में सिखाता है, जो हमारे कार्यों से हमारी अपेक्षाओं को समाप्त करने में मदद करता है। इससे हमारा डर खत्म होता है।
पानी का स्वभाव चलती जहाज को अपना मार्ग बदलने में मदद करता है, भले ही पतवार से जुड़ी छोटी पतवार (ट्रिम टैब) पर एक छोटा आंतरिक बल लगाया जाता है। इसी तरह, भीतर से सही दिशा में एक छोटा सा प्रयास ब्रह्माण्ड के गुण के कारण एक बड़ा बदलाव ला सकता है, जो हमारे लिए कर्मयोग का मार्ग प्रशस्त करता है।
जब हम बच्चे थे, हमने तब तक हार नहीं मानी जब तक हमने चलना और दौडऩा सीख नहीं लिया जो कि कोई आसान उपलब्धि नहीं है। इसी तरह, कर्मयोग में महारत हासिल करने के लिए बार-बार किए गए प्रयास ऐसे परिणाम देंगे जिन्हें छोटी लेकिन निश्चित जीत की एक श्रृंखला के रूप में देखा जा सकता है।
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gitaacharaninhindi · 16 days
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30. पानी, रेत और पत्थर पर लेखन
श्रीकृष्ण कहते हैं कि सांख्ययोग (2.11-2.38) के बारे में स्पष्ट करने के बाद वे अब योग अर्थात् कर्मयोग की व्याख्या करेंगे, जिसके अभ्यास से व्यक्ति कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा (2.39)।
सांख्ययोग की व्याख्या करते हुए, श्रीकृष्ण अर्जुन को सचेत कराते हैं कि वह अविनाशी चैतन्य हैं जिसकी मृत्यु नहीं होती है। इसी श्लोक से श्रीकृष्ण कर्मयोग के द्वारा इसकी व्याख्या करने लगते हैं। इसलिए कर्मबंधन और योग को इसी सन्दर्भ में समझने की जरूरत है।
योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन और गीता में इसका प्रयोग कई संदर्भों में किया जाता है। श्रीकृष्ण समत्व को ही योग कहते हैं (2.48) जहां सफलता या असफलता के प्रति आसक्ति को छोड़ दिया जाता है। श्लोक 2.38 में भी श्रीकृष्ण का जोर सुख-दु:ख, जीत-हार और लाभ- हानि के प्रति समत्व बनाए रखने पर है।
कर्मबंधन दिमाग पर उन चिन्हों को संदर्भित करता है, जो सुखद और दर्दनाक दोनों तरह के होते हैं, जो हमारे द्वारा किए गए कर्मों और हमें भीतर एवं बाहर से प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं द्वारा छोड़े जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से इन्हें तंत्रिका प्रतिरूप (न्यूरल पैटर्न) कहा जाता है। दिमाग पर यह चिन्ह  हमारे व्यवहार को अचेतन स्तर से संचालित करती हैं और इसलिए श्रीकृष्ण हमें योग के माध्यम से कर्मबंधन के चिन्हों से मुक्त होने के लिए कहते हैं।
हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति उन चिन्हों को पसंद करती है जो हमें सुख और लाभ देती हैं और उन चिन्हों से घृणा करती हैं जो हमें दर्द और हानि देते हैं। ये चिन्ह  जितने गहरे होते हैं, पसंद करने की या घृणा करने की प्रवृत्ति उतनी ही तीव्र होती है।
उदाहरण के तौर पर दिमाग पर इन चिन्हों या छापों को पत्थर, रेत और पानी पर लिखावट से तुलना कर सकते है। जब छाप पत्थर पर होती है, तो यह गहरी होती है और हमें लंबे समय तक प्रभावित करती है। रेत पर लिखने से थोड़ा कम समय तक। परन्तु पानी पर लिखा तुरंत मिट जाता है।
जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग हमें कर्मबंधन से मुक्त करता है  तब वे पानी पर लिखावट के बारे मे कह रहे हैं। कर्मयोग हमें इतना सरल बनाता है कि कुछ भी हमें प्रभावित या परेशान नहीं कर सकता है।
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gitaacharaninhindi · 18 days
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29. संतुलन ही परमपद
श्लोक 2.38 गीता के सम्पूर्ण सार को दर्शाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि वह सुख और दु:ख, लाभ और हानि, जय और पराजय समान समझकर युद्ध करे तो उसे कोई पाप नहीं लगेगा। उल्लेखनीय है कि यहां ‘समानता’ का सन्दर्भ युद्ध के अलावा अन्य सभी कर्मों पर भी लागू होता है।
यह श्लोक बस इतना कहता है कि हमारे सभी कर्म प्रेरित हैं और यही प्रेरणा कर्म को अशुद्ध या पाप बनाती है। हम शायद ही कोई कर्म जानते हैं या करते हैं जो सुख, लाभ या जीत पाने के लिए या दर्द, हानि या हार से बचने  के लिए हैं।
सांख्य और  कर्मयोग की दृष्टि से किसी भी कर्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है जो कर्ता, कर्म और कर्मफल हैं। श्रीकृष्ण ने कर्मफल को सुख/दु:ख, लाभ/हानि और जय/पराजय में विभाजित किया है।
श्रीकृष्ण इस श्लोक में समत्व प्राप्त करने के लिए इन तीनों को अलग करने का संकेत दे रहे हैं। एक तरीका यह है कि कर्तापन को छोड़ कर साक्षी बन जाएं, इस एहसास से कि जीवन नामक भव्य नाटक में हम एक नगण्य भूमिका निभाते हैं। दूसरा तरीका यह महसूस करना है कि कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है क्योंकि यह हमारे प्रयासों के अलावा कई कारकों का एक संयोजन है। कर्तापन या कर्मफल छोडऩे के मार्ग आपस में जुड़े हुए हैं और एक में प्रगति स्वत: ही दूसरे में प्रगति लाएगी।
कर्म की बात की जाए तो, यह हममें से किसी के भी धरती पर आने से बहुत पहले मौजूद था। न तो इसपर ��्वामित्व पाया जा सकता है और न ही इसके परिणामों को नियंत्रित किया जा सकता है।
इस श्लोक को भक्ति योग की दृष्टि से भी देखा जा सकता है जहां भाव ही सब कुछ है। श्रीकृष्ण कर्म से अधिक भाव को प्राथमिकता देते हैं। यह आंतरिक समर्पण स्वत: ही समत्व लाता है।
व्यक्ति की अपनी मनोदशा के आधार पर, वह अपना मार्ग स्वयं चुन सकता है। दृष्टिकोण कुछ भी हो, केवल इस श्लोक का ध्यान करने से व्यक्ति अहंकार से मुक्त अंतरात्मा को प्राप्त कर सकता है।
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gitaacharaninhindi · 26 days
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28. परमात्मा से एक होना
श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) और परधर्म (3.35) के बारे में बताते हैं और अंत में सभी धर्मों को त्यागकर परमात्मा के साथ एक होने की सलाह देते हैं (18.66)।
अर्जुन का विषाद उसके भय से उत्पन्न हुआ कि यदि उसने युद्ध लड़ा और अपने भाइयों को मार डाला तो उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचेगी। श्रीकृष्ण उसे कहते हैं कि युद्ध से पलायन करने पर भी वह अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा क्योंकि लडऩा उसका स्वधर्म है (2.34-2.36)। सब लोगों को लगेगा कि अर्जुन युद्ध में शामिल होने से डरे और युद्ध से डरना क्षत्रिय के लिए मृत्यु से भी बदतर है।
श्रीकृष्ण आगे बताते हैं कि, ‘‘स्वधर्म, भले ही दोषपूर्ण या गुणों से रहित हो, परन्तु परधर्म से बेहतर है और स्वधर्म के मार्ग में मृत्यु बेहतर है, क्योंकि परधर्म भय देने वाला है’’ (3.35)।
बाहर की ओर देखने वाली इन्द्रियों की वजह से परधर्म आसान और बेहतर लगता है खासकर जब हम सफल लोगों को देखते है। लेकिन आंतरिक स्वधर्म के लिए अनुशासन और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है और इसे धीरे-धीरे हमारे अंदर उजागर करना पड़ता है।
आमतौर पर हमारे आत्म-मूल्य की भावना दूसरों से तुलना करने से आती है। इस तुलना में अन्य बातों के अलावा हमारे प्रतिष्ठित परिवार जहां हम पैदा हुए हैं, स्कूल में ग्रेड, नौकरी या पेशे में अच्छी कमाई और हमारे रास्ते में आने वाली शक्ति / प्रसिद्धि शामिल होते है।  ऐसी तुलना   से हम खुद को दूसरों से बेहतर बनाने की कोशिश करते  हैं। परन्तु श्रीकृष्ण के लिए, हर कोई अद्वितीय है और अपने स्वधर्म के अनुसार अद्वितीय रूप से खिलेगा। उनका कहना है कि जबकि सभी में अव्यक्त एक ही है, प्रत्येक प्रकट अस्तित्व अद्वितीय है।
अंत में, श्रीकृष्ण हमें परामर्श देते हैं कि हम सभी धर्मों को त्याग दें और उनकी शरण में चले जाएं क्योंकि वे हमें सभी पापों से मुक्त कर देंगे (18.66)। यह भक्ति योग में समर्पण के समान है और आध्यात्मिकता की नींव  है।
जिस प्रकार एक नदी समुद्र का हिस्सा बनने पर अपने स्वधर्म को खो देती है, उसी तरह हमें भी परमात्मा के साथ एक होने के लिए अहंकार और स्वधर्म को खोना पड़ेगा।
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gitaacharaninhindi · 1 month
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27. स्वधर्म से समन्वय
श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) की व्याख्या करते हैं और वे अर्जुन को बताते हैं कि इस तरह अनचाही लड़ाई स्वर्ग का द्वार खोलती है (2.32) और इससे भागने से स्वधर्म और प्रसिद्धि की हानि होगी और पाप होगा (2.33)। युद्ध के मैदान में अर्जुन को दी गई इस सलाह को सही सन्दर्भ में देखने की जरूरत है। श्रीकृष्ण वास्तव में स्वधर्म के साथ समन्वय और तालमेल की बात कर रहे हैं, न कि युद्ध के बारे में।
श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों, कथनों और कार्यों के बीच असंगति पाते हैं। वह अर्जुन में सद्भाव लाने की दिशा में मार्गदर्शन करने का प्रयास करते हैं। अर्जुन के मामले में, अपने स्वधर्म के अनुसार युद्ध लडऩे में समन्वय है और युद्ध से भागना असामंजस्य है।
वास्तव में, समन्वय सृष्टि का नियम है जहां सबसे छोटे ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ से लेकर सबसे बड़ी आकाशगंगा, ग्रह और तारे सामंजस्य में हैं। हम अपने पसंदीदा संगीत का आनंद तभी लेते हैं जब रेडियो और रेडियो स्टेशन सामंजस्य (धुन) में हों। इतने सारे अंगों और रसायनों से युक्त मानव शरीर की तुलना में समन्वय का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है, जिसकी सहक्रियात्मक कार्यप्रणाली हमें वह बनाती है जो हम हैं। समन्वय चीजों और स्थितियों को संदर्भित करता है जैसा कि वे हैं न कि जैसा हम चाहते हैं कि वे हमारे सन्दर्भ और मूल्यांकन के अनुसार हों।
हमें बचपन से सिखाया जाता है कि मृत्यु के बाद अच्छे कर्म हमें स्वर्ग में ले जाऐंगे और बुरे कर्म नर्क में ले जाऐंगे। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि स्वर्ग और नर्क जीवन के बाद के स्थान नहीं हैं, बल्कि यहां और अभी मौजूद हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी को उसकी क्षमता के अनुसार अवसर मिला या नहीं।
जब हम दूसरों के स्वधर्म को समझते हैं, तो परिवारों, कार्यस्थलों और रिश्तों में सामंजस्य आता है जो स्वर्ग है और उसका अभाव नर्क है। हमारी इच्छाएं पूरी होती हैं या नहीं, इसके आधार पर हम सुख या दु:ख का अनुभव करते हैं। जब स्वधर्म के साथ आंतरिक समन्वय प्राप्त हो जाता है, तो यह बाहरी दुनिया की परवाह किए बिना स्वर्ग के समान है।
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gitaacharaninhindi · 1 month
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26. गुलाब कभी कमल नहीं बन सकता
श्रीकृष्ण स्वधर्म (2.31-2.37) के बारे में बताते हैं और अर्जुन को सलाह देते हैं कि क्षत्रिय होने के नाते उन्हें लडऩे में संकोच नहीं करना चाहिए (2.31) क्योंकि यह उनका स्वधर्म है।
श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत ‘उस’ से करते हैं जो शाश्वत, अव्यक्त और सभी में व्याप्त है। इसे आसानी से समझने के लिए आत्मा कहा जाता है। फिर वह स्वधर्म के बारे में बात करते हैं, जो ‘उस’ से एक कदम पहले है और बाद में वह कर्म के बारे में कहते हंै।
अंतरात्मा की अनुभूति की यात्रा को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण है हमारी वर्तमान स्थिति, दूसरा है स्वधर्म का बोध और अंत में, अंतरात्मा तक पहुंचना। वास्तव में, हमारी वर्तमान स्थिति हमारे स्वधर्म, अनुभवों, ज्ञान, स्मृतियों और हमारे अस्थिर मस्तिष्क द्वारा एकत्रित धारणाओं का एक संयोजन है। जब हम अपने आप को अपने मानसिक बोझ से मुक्त करते हैं तो स्वधर्म धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाता है।
 क्षत्रिय ‘क्षत’ और ‘त्रय’ का संयोजन है। क्षत का अर्थ है चोट और त्रय का अर्थ है सुरक्षा देना। क्षत्रिय वह है जो चोट से सुरक्षा देता है।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक माँ का है जो गर्भ में बच्चे की रक्षा करती है और बच्चों की तब तक रक्षा करती है जब तक कि वे अपने पाँव पर खड़े नहीं हो जाते। तो वह पहली क्षत्रिय हैं जिनसे हम अपने जीवन में मिलते हैं। वह अप्रशिक्षित हो सकती है और उसे बच्चे की देखभाल का अनुभव नहीं हो सकता है लेकिन यह स्वाभाविक रूप से उसे आता है। यह प्रकृति स्वधर्म की झलक है।
एक बार एक गुलाब का फूल एक सुन्दर कमल के फूल को देखकर विस्मित हो गया और कमल बनने की इच्छा पालने लगा। लेकिन कोई उपाय नहीं है कि वह कमल बन जाए। जैसे गुलाब अपनी क्षमता से अलग होना चाहता है, ऐसी ही प्रवृत्ति हमारे भीतर भी है जिसकी वजह से हम अर्जुन के विषाद की तरह दु:ख पाते रहते हैं। गुलाब अपना रंग, आकृति और आकार बदल सकता है, लेकिन फिर भी गुलाब ही रहेगा जो उसका स्वधर्म है।
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gitaacharaninhindi · 1 month
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25. अहंकार मिटने पर हासिल होती है ‘मंजिल’
श्रीकृष्ण कहते हैं कुछ इस (आत्मा) को चमत्कार के रूप में देखते हैं, कुछ इसे चमत्कार के रूप में बोलते हैं, अन्य लोग इसे चमत्कार के रूप में सुनते हैं, और फिर भी इसे कोई नहीं जानता है (2.29)।
‘कोई नहीं’ एक प्रेक्षक को संदर्भित करता है जो प्रेक्षित (आत्मा) को समझने के लिए अपनी इंद्रियों का उपयोग कर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब तक इन दोनों के बीच दूरी है, तब तक प्रेक्षक आत्मा को नहीं समझ सकता है।
एक बार एक नमक की गुडिय़ा समुद्र का पता लगाना चाहती थी और उसने अपनी यात्रा शुरू की। प्रचंड तरंगों के माध्यम से यह समुद्र के गहरे हिस्सों में प्रवेश करती है और धीरे-धीरे इसमें घुलने लगती है। जब तक यह सबसे गहरे भाग में प्रवेश करती है, तब तक यह पूरी तरह से घुल जाती है और समुद्र का हिस्सा बन जाती है। कहा जा सकता है कि यह स्वयं सागर बन गई है और नमक की गुडिय़ा का कोई अलग अस्तित्व नहीं है। प्रेक्षक (नमक की गुडिय़ा) प्रेक्षित (महासागर) बन गयी है, जो अनिवार्य रूप से विभाजन को समाप्त कर एकता लाना है।
नमक की गुडिय़ा हमारे अहंकार के समान है, जो हमेशा हमें अपनी संपत्ति, विचारों और कार्यों के जरिये वास्तविकता से अलग रखने की कोशिश करता है। अनिवार्य रूप से कोई भी व्यक्ति ‘कोई नहीं’ या सामान्य नहीं रहना चाहता है।
लेकिन यात्रा एकता और एकात्मकता की है। यह तभी होता है जब अहंकार नमक की गुडिय़ा की तरह अपना अस्तित्व खो देता है। इसका अर्थ है कि हमारे पास जो कुछ भी है, वस्तु और विचार, दोनों को दांव पर लगा देना। यह वह यात्रा है जहां मंजिल तब हासिल होती है जब ‘हम’ (अहम्) खत्म हो जाता है; जहां ‘मैं’, ‘मेरा’ छोडऩे योग्य उपकरण हैं, न कि पहचान के।
सुख-दु:ख के ध्रुवों के शिखर पर हमें निर-अहंकार की झलक मिलती है। बोध के इन क्षणों में, हमें इस बात की झलक मिलती है कि हम क्या हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या जानते हैं, हम क्या करते हैं और हमारे पास क्या है।
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gitaacharaninhindi · 2 months
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24. आत्मा पुराने शरीर को बदलती है
  श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा न मारती है और न मारी जाती है और अज्ञानी ही अन्यथा सोचते हैं। यह अजन्मा, नित्य (अविनाशी), सनातन और पुरातन है। श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार हम नए वस्त्र पहनने के लिए पुराने वस्त्रों को छोड़ देते हैं, ठीक उसी प्रकार आत्मा भौतिक शरीरों को बदल देती है (2.19, 2.20)।
एक वैज्ञानिक सन्दर्भ में इसे ऊर्जा संरक्षण के नियम एवं द्रव्यमान और ऊर्जा की अंतर-परिवर्तनीयता के सिद्धांत द्वारा अच्छी तरह से समझाया जा सकता है। यदि ऊर्जा को आत्मा का प्रतीक माना जाता है, तो भगवान श्रीकृष्ण के वचन बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं। ऊर्जा के संरक्षण का नियम कहता है कि ऊर्जा को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता है, बल्कि केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, थर्मल पावर स्टेशन थर्मल ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित करते हैं। एक बल्ब बिजली को प्रकाश में बदलता है। तो, यह सिर्फ रूपांतरण है, कोई विनाश नहीं है। एक बल्ब का एक सीमित जीवनकाल होता है। जब यह फ्यूज हो जाता है, तो इसे एक नए बल्ब से बदल दिया जाता है, लेकिन बिजली अभी भी बनी हुई है। यह उसी तरह है जैसे हम नये कपड़ों के लिए पुराने को छोड़ देते हैं।
हमारे लिए मृत्यु एक अनुमान है, अनुभव नहीं। हमारी समझ यह है कि हम सभी एक दिन मर जाएंगे और हम इसका अनुमान तब लगाते हैं जब हम दूसरों को मरते हुए देखते हैं। हमारे लिए मृत्यु का अर्थ है शरीर का अचल हो जाना और इंद्रियों का काम करना बंद हो जाना। हमारे पास अपनी शारीरिक मृत्यु के बारे में जानने या उसका अनुभव करने का कोई तरीका नहीं है, सिवाय इसके कि हम जो अनुमान लगाते हैं कि मृत्यु हम सभी के लिए निश्चित है। हमारा जीवन मृत्यु और उससे जुड़े भय के इर्द-गिर्द घूमता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि बाकी सब कुछ संभव है, लेकिन मृत्यु कोई संभावना नहीं है, यह सिर्फ एक भ्रम है। जब कपड़े खराब हो जाते हैं, तो वे हमें तत्वों से नहीं बचा सकते हैं और हम उन्हें नए के साथ बदल देते हैं। इसी तरह, जब हमारा भौतिक शरीर अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ होता है, तो उसे बदल दिया जाता है।
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gitaacharaninhindi · 2 months
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23. आत्मा अव्यक्त है
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय और विकाररहित है। जब यह बात समझ में आ जाती है, तो भौतिक शरीर के लिए शोक करने की कोई जरूरत नहीं रहती(2.25)। श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि सभी प्राणी अपने जन्म से पहले अव्यक्त थे, वे अपने जन्म और मृत्यु के बीच प्रकट होते हैं और अपनी मृत्यु के बाद एक बार फिर अव्यक्त हो जाते हैं (2.28)।
इसे समझाने के लिए कई संस्कृतियां समुद्र और लहर का उदाहरण देते हैं। सागर अव्यक्त का प्रतिनिधित्व करता है और लहर प्रकट का प्रतिनिधित्व करती है। समुद्र में कुछ समय के लिए लहरें उठती हैं और वे अलग-अलग आकृति, आकार, तीव्रता आदि में दिखाई देती हैं। अंत में लहरें जहां से उठी थीं वापस उसी समुद्र में विलीन हो जाती हैं । हमारी इंद्रियां केवल व्यक्��� यानी तरंगों को ही समझने की क्षमता रखती हैं।
इसी तरह, एक बीज में वृक्ष बनने की क्षमता होती है। बीज में वृक्ष अव्यक्त रूप में है। यह प्रकट होकर एक पेड़ के रूप में विकसित होने लगता है। कई बीज पैदा करने के बाद यह अंतत: खत्म हो जाता है।
व्यक्त वह है जिसे इंद्रियां अपनी सीमित क्षमताओं के साथ समझ सकती हैं। आधुनिक युग में हमारी इंद्रियों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक उपकरण भी उपलब्ध हैं। खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) / दूरबीन आंखों की देखने की क्षमता को बढ़ाने के लिए हैं। एक्स-रे मशीन रोशनी की अलग-अलग आवृत्तियों में चीजों को आंखों से देखने में सक्षम बनाती है।
लेकिन, श्रीकृष्ण कहते हैं यह (अव्यक्त) अकल्पनीय है जिसका अर्थ है कि वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से भी हमारी इंद्रियां इसे समझने में हमारी मदद नहीं करेंगी। मन अव्यक्त की कल्पना करने में असमर्थ है क्योंकि मन भी इंद्रियों का एक समुच्चय मात्र है।
हमारी तरह, अर्जुन ने भी अपनी पहचान मानव शरीर से की, क्योंकि उन्हें इससे परे का कोई अहसास या अनुभव नहीं था। श्रीकृष्ण अर्जुन को अव्यक्त के बारे में बताकर उसकी सोच में एक आदर्श बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। अर्जुन जैसे विद्वान को यह समझने के लिए स्वयं भगवान की आवश्यकता पड़ी, इसलिए हम कोई अपवाद नहीं हैं।
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gitaacharaninhindi · 2 months
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22.  संतुलन परमानंद है
गीता के आरंभ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों का बाह्य विषयों से मिलन, सुख और दु:ख का कारण बनता है (2.14)। वह अर्जुन से उन्हें सहन करने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे अनित्य हैं। समकालीन दुनिया में इसे ‘यह भी बीत जाएगा’ के रूप में जाना जाता है। यदि यह अनुभवात्मक स्तर पर विकसित किया जाता है, तो हम इन ध्रुवों को पार कर सकते हैं और उन्हें समान रूप से स्वीकार करने की क्षमता रख सकते हैं।
पांच इंद्रियां हैं जैसे दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद एवं स्पर्श और उनके संबंधित भौतिक अंग आंख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा हैं। संवेदी भाग मस्तिष्क के वे भाग होते हैं जो संबंधित अंगों के संकेतों को संसाधित करते हैं।
हालाँकि, इन इंद्रिय यंत्रों की बहुत सी सीमाएँ हैं। उदाहरण के लिए आँख, यह केवल प्रकाश की एक विशेष आवृत्ति को संसाधित कर सकती है जिसे हम दृश्यमान प्रकाश कहते हैं। दूसरा, यह प्रति सेकंड 15 से अधिक छवियों को संसाधित नहीं कर सकती है और यही चलनचित्र बनाने का आधार है जो हमें स्क्रीन पर देखने का आनंद देती है। तीसरा, किसी वस्तु को देखने में सक्षम होने के लिए एक न्यूनतम मात्रा में रोशनी की आवश्यकता होती है। इंद्रियों की ये सीमाएँ, सत्य या स्थायी और असत्य या अस्थायी के बीच अंतर करने की हमारी क्षमता में बाधा डालती हैं और हमें रस्सी को एक कुंडली मारे बैठे सांप के रूप में अनुभव कराती हैं।
यहां तक कि मस्तिष्क में इन उपकरणों के संवेदी हिस्से भी उपकरणों की सीमाओं से बंधे हुए हैं। दूसरा, वे बचपन के दौरान उनके साथ किए गए व्यवहार से पीडि़त होते हैं। इसका परिणाम प्रेरित धारणा होती है जिसके  प्रभाव से हम वास्तविकता की जगह वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं।
सत्य को देखने में असमर्थता और असत्य की ओर बढऩे की प्रवृत्ति का परिणाम दु:ख होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब हम सुख और दु:ख में संतुलन बनाए रखते हैं, तो हम अमृत के पात्र होते हैं (2.15), जो कि यहां और अभी मुक्ति है।
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gitaacharaninhindi · 2 months
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21. रचनात्मकता को नष्ट नहीं किया जा सकता
अंतरात्मा को समझने की खोज में दो तरह के ज्ञानियों ने मानवता का मार्गदर्शन किया है। एक सकारात्मक पक्ष से आता है और दूसरा नकारात्मक पक्ष से, हालांकि दोनों सन्दर्भों में गंतव्य एक ही होता है। यात्रा के आरंभ स्थल में भिन्नता है और हमारे मार्ग का चुनाव हमारी प्रकृति पर आधारित है।
सकारात्मक रूप से उन्मुख ‘उस’ का जो अविनाशी, शाश्वत, स्थिर और सभी में व्याप्त है को ‘पूर्ण’ के रूप वर्णन करता है, जिसमें जोडऩे के लिए कुछ भी नहीं बचता है। ‘रचनात्मकता’ इसका एक रूपक है।
नकारात्मक रूप से उन्मुख ‘उस’ का जो अविनाशी, शाश्वत, स्थिर और सभी में व्याप्त है को ‘शून्य’ के रूप वर्णन करता है, जिसमें से कुछ भी नहीं घटाया जा सकता है। ‘अंतरिक्ष’ इसका एक रूपक है।
गौर करने का विषय है कि ‘रचनात्मकता’ और ‘अंतरिक्ष’ (ह्यश्चड्डष्द्ग) दोनों ही सृजन/भौतिक अभिव्यक्ति करने में सक्षम हैं। सहज रूप से यह समझना आसान है कि रचनात्मकता से सृजन होता है।
दूसरी ओर, विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि ब्रह्माण्ड ‘शून्य’ से बना है और अंतरिक्ष में इस ब्रह्माण्ड को अस्तित्व में लाने की क्षमता है। सबसे छोटे परमाणु से लेकर शक्तिशाली ब्रह्माण्ड तक अंतरिक्ष सर्वव्यापी है।
प्रसिद्ध श्लोक 2.23 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा को आग से नहीं जलाया जा सकता; हथियार इसे काट नहीं सकते; पानी इसे घुला नहीं सकता;  हवा इसे सुखा नहीं सकती।
क्या कोई हथियार अंतरिक्ष या रचनात्मकता को नष्ट कर सकता है? बिलकुल भी नहीं। अधिक से अधिक यह रचनात्मकता की भौतिक अभिव्यक्ति को रूपांतरित कर सकता है। इसी तरह, आग न तो रचनात्मकता को नष्ट कर सकती है और न ही अंतरिक्ष को। इसकी क्षमता लकड़ी को राख में बदलने तक सीमित है और यह दोनों भौतिक रूप हैं। पानी भी रचनात्मकता या अंतरिक्ष को घुला नहीं सकता। इसी तरह हवा में उन्हें मुरझाने की न तो शक्ति है और न कौशल है।
रचनात्मकता सृजन को अस्तित्व में ला सकती है, लेकिन सृजन में रचनात्मकता को प्रभावित करने की शक्ति नहीं होती। महत्वपूर्ण बात दिशा है। आकाश में बादल आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन वे आकाश को प्रभावित नहीं कर सकते।
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gitaacharaninhindi · 3 months
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20. मृत्यु हमें नहीं मारती
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कोई समय, भूत, वर्तमान या भविष्य ऐसा नहीं है, जब आप, मैं और युद्ध के मैदान में मौजूद ये राजा लोग नहीं थे, या नहीं रहेंगे (2.12)। वह आगे कहते हैं कि शाश्वत जीव जो अविनाशी है, के भौतिक पक्ष का नाश होना निश्चित है और इसलिए आगे की लड़ाई अवश्य लड़ी जानी चाहिए। इस शाश्वत जीव को कई नामों से जाना जाता है जैसे कि आत्मा या चैतन्य। श्रीकृष्ण उसी को देही कहते हैं।
श्रीकृष्ण सृष्टि के बारे में कहते हुए एक जीव की बात करते हैं जो अविनाशी है, अथाह है, सभी में व्याप्त है और शाश्वत है। दूसरा, उसी शाश्वत अस्तित्व  का एक भौतिक पक्ष है जो हमेशा नष्ट होता है। जब श्रीकृष्ण राजाओं के बारे में उल्लेख करते हैं तो वे उनमें उस जीव की बात कर रहे हैं, जो अविनाशी और शाश्वत है।
मूलत: हम दो भागों से बने हैं। पहला भाग ‘शरीर और मन’, जो हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा एवं सुख और दु:ख के ध्रुवों के अधीन होता है जैसे युद्ध में अर्जुन का विषाद। दूसरा भाग देही है जो शाश्वत है। श्रीकृष्ण का जोर इसे महसूस करके शरीर और मन से पहचान छोडक़र देही के साथ पहचान करने पर है। ज्ञानोदय तब होता है जब पहचान अपने आप छूट जाती है, जो कि एक अनुभव है और इसे शब्दों में नहीं समझाया जा सकता है।
गीता का वह भाग जहां श्रीकृष्ण अर्जुन से युद्ध करने के लिए कहते हैं, समझने में सबसे कठिन भाग है। कुछ लोग कहते हैं कि कुरुक्षेत्र युद्ध कभी हुआ ही नहीं था और यह हमारे रोजमर्रा के संघर्षों का एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है। यह समझना जरूरी है कि अर्जुन के युद्ध से भागने पर युद्ध खत्म नहीं हो जाता। श्रीकृष्ण जागृति और अनुभूति के हथियारों का उपयोग करके जीवन में संघर्षों का सामना करने का परामर्श देते हैं। श्रीकृष्ण जानते हैं कि अहंकार से भरा हुआ अर्जुन निराशा का स्थायी दास हो जाएगा, भले ही वह युद्ध से हट जाए। इसलिए, श्रीकृष्ण उसे सत्य का एहसास करने और युद्ध लडऩे के लिए कहते हैं।
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gitaacharaninhindi · 3 months
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19. रचनात्मकता सृजन करती है, रचनाकार नहीं
श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य जो कि वास्तविकता और स्थायित्व है, कभी समाप्त नहीं होता है। असत्य भ्रम और अस्थायी है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। श्रीकृष्ण हमें उस पर चिंतन करने के लिए कहते हैं जो अविनाशी है और जो सभी में व्याप्त है (2.17)।
सृष्टि के बारे में लोकप्रिय और आसान समझ यह है कि यह रचनाकार का काम है। लेकिन श्रीकृष्ण रचनात्मकता की ओर इशारा करते हैं, जो एक निरंतर विकासोन्मुख शक्ति है। उदाहरण के लिए यह बीज से अंकुरण का कारण बनता है। अंकुर और बीज (दोनों रचनाएं) नष्ट हो सकते हैं, लेकिन रचनात्मकता नहीं। यह अथक रूप से काम करती है और चारों ओर व्याप्त है। जबकि सृष्टि समय से बंधी है, रचनात्मकता समय से परे है। सृष्टि जन्म लेती है और मृत्यु के बाद समाप्त हो जाती है, जबकि रचनात्मकता अविनाशी है।
रचनात्मकता वास्तविक कर्ता है, क्योंकि यह सृष्टि की रचना करता है। यह अनुभूति और भावनाएं पैदा करता है। यह हमारे शरीर और मन जैसे भौतिक रूपों को बनाता है।
ज्ञान और स्मृति हमेशा अतीत की होती है और सृजन, जो कर्मफल है, भविष्य में होता है। रचनात्मकता हमेशा वर्तमान में होती है।
रचनात्मकता ज्ञान और बुद्धि का उपयोग करने की क्षमता है जो इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली सुखद और अप्रिय संवेदनाओं को अवशोषित करती है और उनसे स्वतंत्र प्रतिक्रिया करती है।
हमारी इंद्रियां केवल सृजन को महसूस करने में सक्षम हैं और रचनात्मकता का एहसास करने के लिए उनको पार करने की जरूरत है। बोध के द्वारा व्यक्ति उसके साथ जुड़ सकता है, लेकिन उसका मालिक नहीं बन सकता।
खुशी का सबसे अच्छा क्षण वह होता है जब हम रचनात्मकता के साथ जुड़ जाते हैं, चाहे वह हमारे पेशे में हो या हमारे निजी जीवन में। एक कर्मयोगी के लिए, किसी एक कौशल मे महारत से यह आसानी से प्राप्त किया जाता है।
जबकि हमारी वास्तविक प्रकृति रचनात्मकता है, हम आमतौर पर सृजन के साथ अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। सृष्टि के साथ यह मिथ्या तादात्म्य हमें कर्ता का भ्रम देता है जो अहंकार का स्रोत है।
जिस क्षण हम रचनात्मकता के साथ पहचान करते हैं, हम रचनात्मकता को चारों ओर देख सकते हैं। ऐसा करने के लिए श्रीकृष्ण हमें दूसरों को अपने में और खुद को दूसरों में देखने के लिए कहते हैं; और अंत में उन्हें हर चीज में और हर जगह देखने के लिए कहते हैं।
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gitaacharaninhindi · 3 months
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18. ‘सत्’ एवं ‘असत्’
श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य जो कि वास्तविकता और स्थायित्व है, कभी समाप्त नहीं होता है। असत्य जो कि भ्रम और अस्थायी है, का कोई अस्तित्व नहीं है। ज्ञानी वह है जो दोनों के बीच अंतर कर सके (2.16)।
सत्य और असत्य की जटिलता को समझने के लिए कई संस्कृतियों में रस्सी और सांप की कहानी को अक्सर उद्धृत किया जाता है। एक आदमी शाम को घर वापस पहुंचा और पाया कि उसके घर के प्रवेश द्वार पर एक सांप कुंडली मारे बैठा है। लेकिन वास्तव में यह बच्चों द्वारा छोड़ी गई रस्सी थी, जो हल्के अंधेरे में सांप की तरह दिख रही थी। यहां रस्सी सत्य और सांप असत्य का प्रतीक है। जब तक उसे सत्य यानी रस्सी का बोध नहीं हो जाता, तब तक वह असत्य यानी कल्पित सांप से निपटने के लिए कई रणनीतियाँ अपना सकता है। वह उस पर डंडे से हमला कर सकता है या भाग सकता है या उसकी वास्तविकता परखने के लिए मशाल/दिया जला सकता है।  जब हमारी धारणा असत्य की होती है तो सर्वोत्तम रणनीतियाँ और कौशल व्यर्थ हो जाते हैं।
असत्य का अस्तित्व सत्य से होता है, जैसे रस्सी के बिना सांप का अस्तित्व नहीं है। चूँकि असत्य का अस्तित्व सत्य के कारण है, यह हमें किसी बुरे सपने की तरह प्रभावित कर सकता है जो हमारे शरीर को नींद में पसीने से तर-बतर कर सकता है।
असत्य की पहचान के लिए श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया परख का तरीका यह सिद्धांत है कि ‘जो अतीत में मौजूद नहीं था और भविष्य में नहीं होगा।’ यदि हम इंद्रियजन्य सुख का उदाहरण लेते हैं, तो यह पहले भी नहीं था और कुछ समय बाद नहीं होगा। दर्द और अन्य सभी मामलों में भी ऐसा ही है। इस सम्बन्ध में संकेत यह है कि असत्य समय में मौजूद है जबकि सत्य शाश्वत है।
सत्य अंतरात्मा है जो शाश्वत है और अहंकार असत्य है जो अंतरात्मा के समर्थन से खुद को बनाए रखता है। जिस दिन हम रस्सी रूपी आत्मा की खोज कर लेते हैं, तब सांप रूपी अहंकार अपने आप गायब हो जाता है।
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gitaacharaninhindi · 3 months
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17. चार प्रकार के ‘भक्त’
श्रीकृष्ण के अनुसार चार प्रकार के भक्त होते हैं।
पहला भक्त जीवन में जिन कठिनाइयों और दु:खों का सामना कर रहा है, उनसे बाहर आना चाहता है। दूसरा भौतिक संपत्ति और सांसारिक सुखों की इच्छा रखता है। संस्कृति, लिंग, विश्वास, मान्यता आदि के बावजूद अधिकांश भक्त इन दो श्रेणियों में आते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दो प्रकार के भक्त विभिन्न देवताओं की प्रार्थना और अनुष्ठान करते हैं। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि वह जिस बीमारी से पीडि़त है उसके विशेषज्ञ चिकित्सक के पास जाता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि श्रद्धा के अनुरूप इन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। संक्षेप में, यह समर्पण का एक रूप है।
निम्नलिखित उदाहरण श्रद्धा को समझने में मदद करेगा। दो किसान जिनके खेत पास-पास हैं, वे आस-पास के किसानों की तरह अपने खेतों की सिंचाई के लिए एक कुआं खोदने का फैसला करते हैं। पहला किसान एक या दो दिन खुदाई करता और पानी न मिलने पर स्थान बदल देता और नए सिरे से खुदाई शुरू करता। दूसरा किसान लगातार एक ही जगह खुदाई करता रहा। महीने के अंत तक पहले किसान के खेत में कई गड्ढे रह जाते हैं और दूसरे को कुएं से पानी मिल जाता है। हमारी इंद्रियों को कुछ ठोस नहीं मिलने पर भी (जैसे इस मामले में पानी), यह श्रद्धा है जो हमें गतिमान रखता है, जैसा दूसरे किसान के मामले में है। श्रद्धा एक निडर सकारात्मक शक्ति है और संदेह से मुक्त है।
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि वह इस श्रद्धा के पीछे हैं, जिसके परिणामस्वरूप सफलता मिलती है। श्रद्धा हमारे रिश्तों, पारिवारिक संबंधों और पेशे में चमत्कार हासिल करने की शक्ति रखती है।
तीसरे प्रकार का भक्त इच्छाओं की सीमा को पार करने वाला होता है। वह एक जिज्ञासु व्यक्ति है और स्वयं के ज्ञान की तलाश में है। चौथा भक्त, एक ज्ञानी है, जिसने इच्छाओं की सीमा पार कर ली है। वह हर चीज में और हर जगह भगवान को देखता है और सर्वशक्तिमान के साथ एकता प्राप्त कर चुका होता है।
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gitaacharaninhindi · 3 months
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16. गुणातीत होना
श्रीकृष्ण कहते हैं कि किसी कर्म का कोई कर्ता नहीं होता है। कर्म वास्तव में सत्व, रजो और तमो गुण, जो प्रकृति का हिस्सा हैं, के बीच परस्पर प्रक्रिया का परिणाम है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को दु:खों से मुक्त होने के लिए इन गुणों को पार करने की सलाह देते हैं। अर्जुन जानना चाहते हैं कि गुणातीत कैसे होते हैं और जब व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वह कैसा होता है।
गीता के नींव, जैसे द्वंद्वातीत, द्रष्टा और समत्व के बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। श्रीकृष्ण इंगित करते हैं कि इन तीनों का संयोजन ही गुणातीत है। 
श्रीकृष्ण के अनुसार, एक व्यक्ति जिसने गुणातीत की स्थिति प्राप्त कर ली है, वह यह महसूस करता है कि गुण आपस में प्रभाव डालते हैं और इसलिए एक साक्षी बनकर रहता है। वह न तो किसी विशेष गुण के लिए तरसता है और न ही वह किसी अन्य गुण के विरुद्ध है।
गुणातीत एक साथ द्वंद्वातीत भी है। सुख-दु:ख के ध्रुवों को समझकर वह दोनों के प्रति तटस्थ रहता है। वह प्रशंसा और आलोचना के प्रति तटस्थ है क्योंकि उसे पता है कि ये तीन गुणों के उत्पाद हैं। इसी तरह वह मित्रों और शत्रुओं के प्रति तटस्थ है, यह महसूस करते हुए कि हम स्वयं के मित्र हैं और स्वयं के शत्रु भी हैं।
भौतिक दुनिया ध्रुवीय है और यह दो अत���यों के बीच झूलता है। यह भी स�� है की झूलने के लिए एक लोलक (पेंडुलम) को भी एक स्थिर बिंदु की आवश्यकता होती है। भगवान श्रीकृष्ण उस स्थिर बिंदु पर पहुंचने की सलाह दे रहे हैं, जहां से हम झूलने का (अर्थात् द्वंद्वों का) हिस्सा न बनते हुए सिर्फ द्रष्टा बनकर रहते हैं।
‘गुणातीत’ सोना, पत्थर और मिट्टी को समान महत्व देता है। इसका अर्थ यह है कि वह एक को दूसरे से निम्न नहीं मानता। वह चीजों को वैसे ही महत्व देता है जैसे वे हैं, न कि दूसरों के मूल्यांकन के अनुसार।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि गुणातीत वह है जो कर्ता की भावना को त्याग देता है। यह तब होता है जब हम अपने अनुभवों के माध्यम से महसूस करते हैं कि सबकुछ अपने आप घटता है और कर्ता का उसमें शायद ही कोई योगदान है।
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