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#नागालैंड का प्राचीन इतिहास
newsguruworld · 1 year
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नागा लोग आदमी खाते है #new #shorts #viral
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mmulnivasi · 2 years
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*13 अक्तूबर के दिन येवला मे आयोजित बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क की धम्मपरिषद में शामिल हो जाओ|* नेपाल के काठमांडू और भारत के नाशिक शहर में "नागबलि यज्ञ" किया जाता है| भारत का इतिहास "बौद्ध क्षत्रिय बनाम ब्राम्हण पुरोहित" के बीच चले निरंतर संघर्ष का इतिहास है| नागबलि परंपरा उसी भयंकर संघर्ष का प्रतीक है| मूलनिवासी बहुजनों को प्राचीन भारत में "नागवंशी खत्तिय" कहा जाता था| नाग वास्तव में मूलनिवासी बहुजनों का टोटेम था, इसलिए उन्हें नागवंशी कहा जाता है| नागवंशी लोग प्राचीन बौद्ध थे| इसके शेकडो प्रमाण हमें बौद्ध साहित्य और शिल्पों में मिलतें है| दक्षिण भारत के अमरावती स्तुप में नागराजा और उसकी रानीयाँ बुद्ध का अभिवादन करते हुए शिल्प में दिखाए गए हैं| कान्हेरी बौद्ध गुफा क्रमांक 90 और घटोत्कच बौद्ध गुफा मे नागराजा का शिल्प है और उसके उपर नागफनी दिखती है| नागार्जुनकोंडा में बुद्ध की मुर्ति के उपर सात नागफनी दिखाए गए हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि, तथागत बुद्ध नागवंशी थे| अजंता की गुफा क्रमांक 27 में नाग लोगों को बुद्ध की शरण में जाते हुए दिखाया गया है, जिनके सिर पर नागफनी है, अर्थात वो नागवंशी है| काश्मीर से कन्याकुमारी तक और अरबस्तान से नागालैंड तक नागवंशी बौद्धों का साम्राज्य था| ऋग्वेद में नागों को अरबुद, वृत्र, अहि कहा जाता था और इराणी झेंद अवेस्ता में नागों को "अझि" कहा जाता था| मोजमिल कहते हैं कि, अरबों का पुरखा ताज था, जो नागवंशी था और वह बाबेल का राजा था| (Tree and Serpent worship, Ferguson, p. 95) फेरिस्ता बताता है कि, झहाक नाग के वंशजों ने मुहम्मद पैगम्बर साहब के समय तक अफगानिस्तान पर राज किया था| (अपरोक्त, p. 95) इससे स्पष्ट होता है कि, अफगानिस्तान के लोग भी नागवंशी है| पाकिस्तान के बलुचिस्तान में "कोहि मराज" नामक पर्बत है, जिसका अर्थ नागों का पर्बत होता है| अर्थात, सिंध प्रांत भी नागों का प्रदेश है| महाभारत (ऊद्योगपर्व, XXI) में सिंधु प्रदेश को नागों की पाताल भुमि कहा गया है और राजस्थान में अरबूत नागों का शासन था ऐसा बताया गया है| महाराष्ट्र के भोज, राट्ठ यह सभी लोग नागवंशी थे| महाराष्ट्र के नागवंशी लोग अपने नामों में "नाक" मतलब नाग शब्द लगाते थे| कुडा की गुफा क्र. 5 में नागनिका या पदुमनिका नामक भिक्खुणी का जिक्र है| कुडा की गुफा क्र. 27 में पुरनाक व्यक्ति का जिक्र मिलता है| इतिहास संशोधक ह. वा. करकरे ने 'मराठ्यांचा इतिहास' (1923) के पेज क्र. 174 पर लिखा है कि, महाराष्ट्र के मराठा लोग भी अपने नामों में नाक शब्द का इस्तेमाल करते थे| 'Mahar Folk' इस ग्रंथ मे https://www.instagram.com/p/CjiAIABMrcP/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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onlinegkexams · 4 years
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राजस्थान में पंचायती राज एवं शहरी स्वशासन .
पंचायती राज का इतिहास और शुरुआत
पंचायती राज हेतु संविधान संशोधन
11वीं अनुसूची
राजस्‍थान में पंचायती राज व्‍यवस्‍था.
1.राजस्थान में पंचायती राज एवं शहरी स्वशासन :
भारत में पंचायती राज व्यवस्था का अस्तित्व प्राचीन काल से ही रहा है। ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार ईसा पूर्व से ही हमें पंचायतों के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। उस समय ग्राम पंचायत का प्रमुख ‘ग्रामणी’ से होता था अथर्ववेद में ‘ग्रामणी’ शब्द का उल्लेख मिलता है। यहॉ गठित महासभा विस: कहलाती थी बौद्धकाल में शासन की ईकाई ‘ग्राम’ थी जिसका मुखिया ‘ग्रामयोजक’ होता था जो ग्रामसभा द्वारा चुना जाता था ग्राम पंचायतों को ग्राम सभा कहा जाता था मौर्यशासन में भी पंचायतों को सुदृढ बनाने में महत्वपूर्ण भूमि का का निर्वहन किया गया मुगलकाल में प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई गांव ही थी जिसका प्रबंध पंचायतों द्वारा किया जाता था तथा जिसका मुखिया मुकद्दम कहलाता था आधुनिक भारत में निर्वाचित एवं जनता के प्रति जवाबदेह स्वायत व्यवस्था का प्रथम बीजारोपण ब्रिटिश शासनकाल में सन् 1667 में मद्रास नगर परिषद में हुआ गवर्नर जनरल व वायसराय लॉर्ड रिपन ( (1880-1884)) ने सर्वप्रथम 1882 ई. में जिला बोर्ड, ग्राम पंचायत एवं न्याय पंचायत का प्रस्ताव कर देश में स्थानीय स्वशासन की ठोस बुनियाद रखी इस कारण रिपन को देश में ‘स्थानीय स्वशासन का पिता’ कहा जाता है। सन् 1919 में ‘माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारो’ के तहत स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को वैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया सर्वप्रथम 1919 में बंगाल में ‘स्थानीय सरकार अधिनियम, 1919’ पारित किया गया उसके पश्चात सभी प्रान्तों में अधिनियम पारित कर पंचायतों की स्थापना की गई परन्तु उनमें पंचों का चुनाव जनता द्वारा न होकर सरकार द्वारा मनोनयन किया जाता था राजस्थान में बीकानेर पहली देशी रियासत थी जहां 1928 में ग्राम पंचायत अधिनियम पारित कर ग्राम पंचायतों को वैधानिक दर्जा दिया गया जयपुर रियासत में 1938 में ग्राम पंचायत अधिनियम लागू किया गया था ।
महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी पंचायती राज ग्राम स्वराज्य का आधार है। उन्होनें पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘ माइ पिक्चर ऑफ फ्री इण्डिया’ में किया गया है। उन्होने गाँवों से सर्वांगीण विकास का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम ग्राम पंचायतों को बताया था पंचायती राज व्यवस्था के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 40 में भी इसका प्रावधान है। इसके अनुसरण में विभिन्न राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के लिए अधिनियम पारित कर इन्हें साकार रूप प्रदान किया है।
ग्रामीण विकास में जनस‍हभागिता प्राप्त करने एवं अधिकार व शक्तियों के प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण हेतु सलाह देने के उद्देश्य से जनवरी 1957 में श्री बलवंतराय मेहता समिति की स्थापना की गई इस समिति ने 24 नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देते हुए देश में त्र‍िस्‍तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की सिफारिश की गई इन सिफारिशों की क्रियान्वित में 2 अक्टूम्बर 1959 को सर्वप्रथम राजस्थान में नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा पंचायती राज व्यवस्था का उद्घाटन किया गया इस प्रकार ‘पंचायती राज’ के बापू के स्वप्न को पूरा करने की ओर कदम उठाया गया उस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री स्व. श्री मोहनलाल सुखाड़िया लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के प्रबल समर्थक थे राजस्थान के बाद 11 अक्टूम्बर 1959 को आंध्रप्रदेश में त्र‍िस्‍तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई त्र‍िस्‍तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतें, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समितियां व जिला स्तर पर जिला परिषदें गठित की गई पंचायतों की व्यवस्था के लिए तो पहले से ही राजस्थान पंचायत समिति और जिला परिषद अधिनियम, 1959 बनाया गया। 2 अक्टूम्बर, 2009 को पंचायती राज प्रणाली के 50 वर्ष पूर्ण हुए हैं अतः इसकी स्वर्ण जयंती है। इस उपलक्ष में नागौर में 02-10-2009 को इसका स्वर्णजयन्ती समारोह मनाया गया ।1965 के बाद पंचायती राज व्यवस्था में गिरावट आने लगी तथा ये संस्थाएं लगभग निष्प्रभावी सी होने लगी जिसका मुख्य कारण अधिकांश राज्यों में उनके चुनावों का बार बार स्थगित होना उनको अधिकारों का विकेन्द्रीकरण बहुत कम मात्रा में होना तथा वितीय साधनों की कमी होना था ।पंचायती राज व्यवस्था का मूल्यांकन करने तथा इस प्रणाली को और अधिक कारगर बनाने हेतु सुझाव देने के लिए समय समय पर विभिन्न समितियों का गठन किया गया ।
सादिक अली अध्ययन दल पंचायती राज व्यवस्था में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए राजस्थान सरकार द्वारा 1964 में यह अध्ययन दल गठित किया गया। इसकी महत्वपूर्ण सिफारिश यह थी कि पंचायत समिति के प्रधान तथा जिला परिषद के प्रमुख का चुनाव इन संस्थाओं के सदस्यों द्वारा किये जाने के स्थान पर वृहतर निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाना चाहिए, जिसमें ग्राम पंचायत के अध्यक्ष तथा सदस्य सभी सम्मिलित हों।
गिरधारीलाल व्यास समिति – 1973 में राज्य सरकार द्वारा गठित समिति जिसने प्रत्येक क पंचायत के लिए ग्राम सेवक तथा सचिव नियु‍क्त करने तथा पंचायतीराज संस्थाओं को पर्याप्त वितीय संसाधन दिये जाने पर बल दिया।
अशोक मेहता समिति - पंचायतीराज व्यवस्थाओं का मूल्यांकन करने तथा इस प्रणाली को और अधिक कारगर बनाने हेतु सुझाव देने के लिए 1977-78 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। इस समिति ने जिला स्तर और मंडल स्तर पर द्वि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली स्थापित करने की सिफारिश की थी। इन्होने मण्डल स्तर पर म���्डल पंचायत को लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का केन्द्र बिन्दु बनाने का सुझाव दिया।
एल.एम. सिंघवी समिति – 1986 में गठित इस समिति द्वारा पंचायतीराज संस्थाओं को स्थानीय शासन की आधारभूत ईकाई के रूप में मान्यता देने, ग्रामसभा को महत्व देने आदि की सिफारिश यह थी कि पंचायती राज संस्थाओं को संविधान के अन्तर्गत सरकार का तृतीय स्तर घोषित किया जाना चाहिए और इस हेतु संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाना चाहिए 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा संविधान में नया अध्याय जोड़कर पंचायती राज संस्थाओं को सरकार का तीसरा स्तर प्रदान कर इन्हें संवैधानिक मान्यता कर दी है।
Rajasthan Me Panchayati Raj Aivam Sahari Swashashan Bhaarat Vyavastha Ka Astitwa Pracheen Kaal Se Hee Raha Hai Aitihasik Granthon Ke Anusaar Eesa Poorv Hamein Panchayaton Ullekh Milta Us Samay Gram Panchayat Pramukh Gramanni Hota Tha atharvved Shabd Yahan Gathit Mahasabha Vis Kehlati Thi Bauddhkaal Shashan Ki Ikai Jiska Mukhiya GramYojak Jo GramSabha Dwara Chuna Jata Ko Sabha Kahaa MauryaShashan Bhi Sudridh Banane Mahatvapurnn Bhumi .
2.पंचायती राज हेतु संविधान संशोधन :
16 सितम्बर 1991 को पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पंचायती राज के संबंध में 72 वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। लोकसभा ने इस विधेयक की समीक्षा हेतु श्री नाथूराम मिर्धा (राजस्थान) की अध्यक्षता में संयुक्त प्रवर समिति का गठन किया। इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 22 दिसम्बर 1992 को लोकसभा द्वारा तथा अगले दिन राज्यसभा में 73 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 पारित किया गया। 17 राज्यों के अनुमोदन के पश्चात राष्ट्रपति ने इसे 20 अप्रेल 1993 को अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा एक अधिसूचना द्वारा 24 अप्रेल 1993 का यह अधिनियम मिजोरम, मेघालय, नागालैंड, जम्मू कश्मीर, दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र व मणिपुर के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर संपूर्ण देश में लागू हो गया। इस संशोधन अधिनियम के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 243 को नवें भाग के रूप में जोड़ा गया तथा 11 वीं अनुसूची में जोड़ी गई। जिसमें पंचायती राज संस्थाओं के 29 कार्यो को सूचीबद्ध किया गया है। इस अधिनियम के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो गई है। इस अधिनियम द्वारा यह अपेक्षा की गई थी कि देश की सभी राज्य सरकारें इस अधिनियम के लागू होने की तिथि से एक वर्ष के भीतर अपने पुराने प्रचलित पंचायती राज अधिनियमों को निरस्त कर 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के परिप्रेक्ष्य में नए पंचायती राज अधिनियम तैयार कर लागू करें। इन्हीं निर्देशों की अनुपालना में राजस्थान सरकार ने अपने पुराने दोनों अधिनियमों को निरस्त कर एक नया पंचायती राज अधिनियम तैयार कर 23 अप्रेल 1994 से लागू कर दिया जिसे हम ‘राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994’ के नाम से पुकारते हैं। इस अधिनियम के संदर्भ में ‘राजस्थान पंचायती राज नियम, 1996’ बनाए गए हैं जो 30 दिसम्बर 1996 से लागू कर दिए गए हैं। राज्य में वर्तमान में 249 पंचायत समितियां, 9177 ग्राम पंचायतें व 33 जिला परिषदें हैं। 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 प्रमुख प्रावधान
ग्राम सभा: प्रत्येक ग्राम पंचायत क्षेत्र के लिए एक ग्राम सभा होगी जिसके सदस्य उस पंचायत के अन्तर्गत आने वाले गांव या गांवों से संबंधित मतदाता सूची में पंजीकृत व्यक्ति होंगे।
प्रत्येक राज्य में पंचायती राज की त्र‍िस्‍तरीय व्यवस्था होगी जिसमें ग्राम , मध्यवर्त व जिला स्तर पर पंचायतों का गठन किया जाएगा परन्तु 20 लाख तक की आबादी वाले राज्यों में मध्यवर्ती स्तर की पंचायत का गठन करना आवश्यक नहीं है।  
कार्यकाल पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से 5 वर्ष तक होगा।
कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व ही चुनाव कराने आवश्यक होंगे किसी संस्था का विघटन किये जाने की स्थिति में विघटन से 6माह के भीतर उसके चुनाव कराने आवश्यक होंगे।  
चुनावग्राम व मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत के सभी सदस्य प्रत्यक्ष मतदान द्वारा तथा जिला पंचायत के सभी सदस्य राज्य विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधि के अनुसार चुनें जाएंगे।
अध्यक्षों का चुनाव ग्राम स्तर पर राज्य विधानमण्डल द्वारा विहित रीति से एवं मध्यवर्ती व जिला स्तर पर निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से होगा।
किसी भी पंचायती राज संस्था का चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होगी।  
आरक्षणसभी पंचायतों में सभी पदों पर (अध्यक्ष पद सहित) अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गो के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें सुरक्षित होगी सभी पदों पर सभी वर्गो में 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।
ऐसे स्थान किसी पंचायत में भिन्न भिन्न निर्वाचित क्षेत्रों को चक्रानुक्रम से आवंटित किए जाएंगे। केन्द्र सरकार ने अब पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान को 27.08.09 को मंजूरी दे दी।
राज्य के विधानमंडल को यह छूट होगी कि पंचायतों में पिछड़े वर्गो के लिए भी स्थान सुरक्षित रखें।
निर्वाचन आयोग प्रत्येक राज्य में इन संस्थाओं के चुनाव निष्पक्ष व समय पर करवाने हेतु पृथक से चुनाव आयोग की स्थापना की जाएगी, जिसका प्रमुख राज्य निर्वाचन आयुक्त होगा इसकी निुयक्ति राज्यपाल द्वारा की जाएगी तथा उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह ही राष्ट्रपति द्वारा संसद् में महाभियोग प्रस्ताव पास होने के बाद हटाया जाएगा।  
वित आयोग पंचायती राज संस्थाओं की वितीय स्थिति सुदृढ करने तथा पर्याप्त मात्रा में वितीय संसाधन उपलब्ध कराने हेतु सुझाव देने के लिए प्रत्येक राज्य के राज्यपाल द्वारा हर 5 साल में राज्य वित आयोग का गठन किया जाएगा जो अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को देगा।
16 September 1991 Ko P V Narsimha Rao Sarkaar Dwara Panchayati Raj Ke Sambandh Me 72 Th Samvidhan Sanshodhan Vidheyak Loksabha Prastut Kiya Gaya ne Is Ki Samiksha Hetu Shri Nathuram Mirdha Rajasthan Adhyakshta Sanyukt Pravar Samiti Ka Gathan Sifarishon Aadhaar Par 22 December 1992 Tatha Agle Din RajyaSabha 73 Adhiniyam Parit 17 Rajyon Anumodan Paschaat President Ise 20 April 1993 Apni Svikriti Pradan Ek Adhisoochna 24 Yah Mizor .
3. ग्यारहवीं अनुसूची (अनुच्छेद 243 छ) कृषि भूमिसुधार व मृदा संरक्षण लघु सिंचाई, जल प्रबंध और जलग्र‍हण विकास पशुपालन, डेयरी व मुर्गीपालन मत्स्य पालन सामाजिक वानिकी व कृषि वानिकी लघु वनोपज लघु उद्योग, खाध प्रसंस्करण उद्योग समेत शिक्षा, प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों समेत तकनीक प्रशिक्षण व व्यावसायिक शिक्षा प्रौढ व अनौपचारिक शिक्षा पुस्तकालय सांस्कृतिक गतिवधियां हाट व मेले स्वास्थ्य व साफ सफाई, अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र व डिस्पेंसरियां समेत खादी व ग्रामीण कुटीर उद्योग ग्रामीण आवास पेयजल ईंधन व चारा सड़कें व नालियां पुल जलमार्ग व अन्य साधन ग्रामीण विद्युतीकरण, विद्युत विवरण समेत गैर परम्परागत उर्जा स्त्रोत गरीबी उन्मूलन परिवार कल्याण महिला व बाल विकास समाज कल्याण, विकलांगों व विमंदित के कल्याण समेत कमजोर वर्गो का कल्याण खासकर अनुसूचित जाति व जनजाति सार्वजनिक वितरण प्रणाली सामुदायिक संपदा का रखरखाव.
11th AnuSoochi Anuchhed 243 Chh Krishi BhumiSudhar Wa Mrida Sanrakhshan Laghu Irrigation Jal Prabandh Aur Jalagrahann Vikash Pashupalan Dairy MurgiPalan Matsya Palan Samajik Waniki Vanopaj Udyog खाध Prasanskarann Samet Shiksha Prathmik Madhyamik Schools Taknik Prashikshan Vyavsayik Praudh Anaupacharik Pustakalaya Sanskritik Gatividhiyan Haat Mele Swasthya Saaf Safai hospital Center Dispensaries Khadi Gramin Kuteer Aawas Peyjal Indhan Chara .
3.राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था :
(73 वें संविधान संशोधन अधि., राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1994 व पंचायती राज नियम, 1996 के अधीन)
विवरणग्राम स्‍तर (निम्‍नतम स्‍तर (9177 ग्राम पंचायतें)खंड स्‍तर (मध्‍य स्‍तर) कुल 249 ग्राम पंचायतेंजिला स्‍तर (शीर्ष स्‍तर) (33 जिला परषिद्)
संस्‍था का नामग्राम पंचायतपंचायत समितिजिला परषिद्
क्षेत्राधिकार व ग��नगॉव या गॉवों का समूह सरपंच, उपसरपंच व पंचविकास खण्‍ड ब्‍लॉक प्रधान, उपप्रधान व सदस्‍यजिला परिषद् ए‍क जिला जिला प्रमुख, उप जिला प्रमुख व सदस्‍य
सदस्‍यग्राम सभा द्वारा निर्वाचित पंच (प्रत्‍येक वार्ड से एक पंच)निर्वाचित सदस्‍य पदेन सदस्‍य सभी पंचायतों के सरपंच संबंधित क्षेत्र के राज्‍य विधानसभा सदस्‍यनिर्वाचित सदस्‍य पदेन सदस्‍य, जिले की सभी लोकसभा, जिले की सभी पंचायत समितियों के प्रधान, जिले की सभी लोकसभा राज्‍य सभा, व विधान सभा सदस्‍य
सदस्‍यों का निर्वाचनप्रत्‍येक वार्ड में पंजीकृत वयस्‍क सदस्‍यों द्वारा प्रत्‍यक्षः निर्वाचितपंचायत समिति क्षेत्र से प्रत्‍यक्षतः निर्वाचितजिला परिषद क्षेत्र के निर्धारित निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्‍यक्षतः निर्वाचित
निर्वाचित सदस्‍यों की योग्‍यतान्‍यूनतम आयु 21 वर्षआयु 21 वर्षआयु 21 वर्ष
निर्वाचित सदस्‍य सख्‍यान्‍यूनतम पंच 9 तीन हजार से अधिक जनसंख्‍या पर प्रति एक हजार या उसके किसी भाग के लिए 2 अतिरिक्‍त पंचन्‍यूनतम 15 एक लाख से अधिक जजसंख्‍या होने पर प्रत्‍येक अतिरिक्‍त 15 हजार या उसके भाग के लिए 2 अतिरिक्‍त सदस्‍यन्‍यूनतम 17 4 लाख से अधिक जनसंख्‍या होने पर अतिरिक्‍त 1 लाख या उसके भाग के लिए 2 अतिरिक्‍त सदस्‍य
निर्वाचित सदस्‍यों द्वारा त्‍याग पत्रविकास अधिकारी कोप्रधानजिला प्रमुख
अध्‍यक्ष का पदनामसरपंचप्रधानजिला प्रमुख
ग्राम सभा के सभी वयस्‍क सदस्‍यों द्वारा बहुमत के आधार पर प्रत्‍यक्षतः निर्वाचितकेवल निर्वाचित सदस्‍यों द्वारा बहुमत के आधार पर अपने में से ही निर्वाचनकेवल निर्वाचित सदस्‍यों द्वारा बहुमत के आधार पर अपने में से ही निर्वाचन
अध्‍यक्ष द्वारा त्‍याग पत्रविकास अधिकारी कोजिला प्रमुख कोसंभागीय आयुक्‍त को
उपाध्‍यक्षउपसरपंचउपप्रधानउप जिला प्रमुख
उपाध्‍यक्ष का चुनावनिर्वाचित पंचों द्वारा बहुमत के आधार पर अपने में से ही निर्वाचनकेवल निर्वाचित सदस्‍यों द्वारा बहुमत के आधार पर अपने में से ही निर्वाचनकेवल निर्वाचित सदस्‍यों द्वारा बहुमत के आधार पर अपने में से ही निर्वाचन
उपाध्‍यक्ष द्वारा पद से त्‍याग पत्रविकास अधिकारी कोजिला प्रमुख कोसंभागीय आयुक्‍त को
बैठकेंप्रत्‍येक 15 दिन में कम से कम एक बारप्रत्‍येक माह में कम से कम एक बारप्रत्‍येक तीन माह में कम से कम एक बार
सरकारी अधिकारीग्राम सचिव (ग्राम सेवक )खंड विकास अधिकारी (( ))मुख्‍य कार्यकारी अधिकारी (( ))
आय के साधनराज्‍य सरकार से प्राप्‍त अनुदान कर एवं शस्तियों द्वारा प्राप्‍त आयराज्‍य सरकार से प्राप्‍त वितीय सहायता एवं अनुदान विभिन्‍न करों से प्राप्‍त आय (यथा मकान व जमीन कर, शिक्षा उपकर मेंलों पर कर आदिराज्‍य सरकार से प्राप्‍त वितीय सहायता एवं अनुदान पंचायत समितियों की आय से प्राप्‍त अंशदान जन सहयोग से प्राप्‍त धनराशि
कार्यसफाई, पेयजल व स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की व्‍यवस्‍था करना, सार्वजनिक स्‍थानों पर प्रकाश की व्‍यवस्‍था करना जन्‍म मृत्‍यु का पंजीकरण वन व पशुधन का विकास व संरक्षण मेलों/उत्‍सवो/मनोरंजन के साधनो की व्‍यवस्‍था करना भू आवंटन करना ग्रामोधोग व कुटीर उधोंगो को बढावाग्राम पंचायत द्वारा किये कार्यो की देखरेख करना पंचायत समिति क्षेत्र में प्रारम्भिक शिक्षा की व्‍यवस्‍था किसानों के लिए उतम किस्‍म के बीज तथा खाद उपलब्‍ध कराना उतम स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं उपलब्‍ध कराना पंचयत समिति मुख्‍यालय से गांवों तक सड़कों व पुलों का निर्माण व रखरखावग्राम पंचायतों और पंचायत समितियों के बीच समपन्‍वय करना व उन्‍हें परामर्श देना ग्राम पंचायतों व राज्‍य सरकार के बीच कड़ी का कार्य विकास कार्यो के बारे मे राज्‍य सरकार को सलाह देना पंचायत समितियों के क्रियाकलापों की सामान्‍य देखरेख करना विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना
Rajasthan Me Panchayati Raaj Vyavastha . Rajasthan Me Panchayati Raj Vyavastha 73 Th Samvidhan Sanshodhan Adhi Adhiniyam 1994 Wa Niyam 1996 Ke Adheen Rajasthan Raaj.
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mahenthings-blog · 5 years
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कौन है हम ?? प्रथम पड़ाव -चौथा दिन  
मनुष्य या किसी सभ्यता की पहचान दो तरीके से की जा सकती है एक तो उसकी संस्कृति से जो उसकी सांस्कृतिक पहचान कही जाएगी और दूसरी उसके डील डोल और अंगो की बनावट से जिसे उसकी जैविक पहचान कहा जा सकता है | पुरातात्विक अन्वेषणों से किसी भी मानव सभ्यता की दोनों प्रकार की पहचान जानी जा सकती है | जमीन में दबी किसी बस्ती के अवशेष ,बर्तन ,और शिलालेख उस सभ्यता की सांस्कृतिक पहचान की जानकारी देते है वही खुदाई के दौरान पाए जाने वाले नरकंकाल ,हड्डियां या मानव खोपड़ियां उस सभ्यता में रहने वाले लोगो की जैविक पहचान उजागर करती है | मेरी राय में हमें ये भली भांति समझ लेना चाहिए कि जैविक पहचान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी व्यक्ति के मूल उद्गम की जानकारी इसी से मिलती है जबकि एक सी जैविक पहचान वाले व्यक्ति अलग अलग संस्कृतियों का हिस्सा हो सकते है |  उत्तर वैदिक काल अथवा यू कहे कि लगभग 800 ईस्वी पूर्व तक भारतीय उपमहादेश में निवास करने वाले लोगो की सांस्कृतिक पहचान स्पष्ट थी कि या तो वे द्रविड़ थे लेकिन वस्तुत ये लोग को थे इनका उद्गम स्थल कोनसा था इसके लिए इनकी जैविक पहचान जानना ही एकमात्र रास्ता है |  वर्तमान सदी में डा गुहा द्वारा 1931 में जनगणना के समय प्रस्तुत वर्गीकरण किसी हद तक इस प्रश्न का उत्तर दे देता है , इस वर्गीकरण में जैविक आधार पर भारत उपमहादेश में निवास करने वाले लोगो को 6 प्रजातियों में बांटा गया है |    पहली प्रजाति वो है जिसमे नीग्रिटो तत्व का समावेश है , छोटा सिर ,उभरा ललाट , चपटी नाक ,बाल सुन्दर और घुंघराले ,रंग काला,कोमल हाथ पैर ,सपाट हड्डियां ,छोटी दाढ़ी ,होंठ मोटे और मुड़े हुए ये सभी नीग्रिटो तत्व है |  बंगाल की खाड़ी ,मलेशिया प्रायद्वीप ,फिजी द्वीप समूह ,न्यूगिनी ,दक्षिण भारत और दक्षिणी अरब में नीग्रिटो अथवा आंशिक नीग्रो लोगो की मौजूदगी ये मान लेने को प्रेरित करती है कि किसी पूर्व ऐतिहासिक काल में ये प्रजाति एशिया महाद्वीप के बड़े विशेषकर दक्षिणी हिस्से को घेरे हुए थी |  नीग्रिटो प्रजाति सभ्यता की अविकसित अवस्था में रही थी और ये प्रजाति भारत उपमहादेश में पाषाण युग अर्थात पत्थर के अनगढ़ हथियार और तीर कमान लेकर ही आयी थी |  खेती ,मिट्टी के बर्तन और भवन निर्माण की कला से ये प्रजाति अनभिज्ञ थी , इनका निवास पहाड़ी गुफाओं में था और भोजन के लिए ये विभिन्न वस्तुए एकत्रित करते थे , भारतीय संस्कृति में वटवृक्ष की पूजा और गुफाओ का निर्माण इन्ही की देन है , अंडमान द्वीप वासियो के अतिरिक्त ये तत्व असम ,पूर्वी बिहार की राजमहल पहाड़ियों में भी पाया गया है |  अंगामी ,नागा ,बागड़ी , इरुला ,कडार ,पुलायन ,मुथुवान और कन्नीकर इसी प्रजाति के प्रतिनिधि है ,प्रोफ़ेसर कीन कडार ,मुथुवान ,पनियांग ,सेमांग ,ओरांव और ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियो को इसी प्रजाति के वंशज मानते है जो किसी समय सम्पूर्ण भारत में निवास करते थे , ये लोग ही सबसे पहले मलेशिया से भारत में बंगाल की खाड़ी से घुसे और उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण भारत में फेल गए , बाद में पूर्व द्रविड़ो अथवा द्रविड़ो के आने पर या तो ये समाप्त हो गए या उनमे विलीन हो गए |        
  भारत उपमहादेश में आनेवाली दूसरी प्रजाति संभवतया प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड अथवा आदि द्रविड़ थी , ये कद में नाटे ,गहरे भूरे अथवा काले रंग के ,लम्बा सिर ,नाक चौड़ी ,चपटी अथवा पिचकी ,घुंघराले बाल ,होठ मोटे और मुड़े हुए होते है।  इनके आदि पूर्वजो के अंश फिलिस्तीन में मिलते है लेकिन ये कब और किस प्रकार भारत आये ये जानकारी नहीं मिलती |  भारत की वर्तमान जनजातियों में ये तत्व ही सर्वाधिक मिलता है , दक्षिण भारत के चेंचू मलायन ,कुरुम्बा ,यरुबा ,मुण्डा , कोल ,संथाल और भील समुदायों के अनेक लोगो में इस प्रजाति के तत्व पाए गए है | तीसरी प्रजाति मंगोलायड है जिसका उद्गम स्थान इरावती नदी ,चीन ,तिब्बत और मंगोलिया है , यही से ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य ये लोग भारत आये और पूर्वी बंगाल के मैदान और असम की पहाड़ियों तथा मैदानों में बस गए |  भारत के उत्तर पूर्व भागो में नेपाल , असम और कश्मीर में तीन प्रकार के मंगोलायड पाए जाते है , चपटा मुंह ,गाल की उभरी हड्डियां ,बादाम की आकृति की आंखे ,  चेहरे और शरीर पर कम बाल ,कद छोटे से मध्यम , चौड़ा सिर और पीलापन लिए हुए रंग इस प्रजाति के प्रमुख तत्व है ,  इनमे पूर्वी मंगोलायड बहुत प्राचीन प्रजाति है जिसे सिर की बनावट ,नाक और रंग से ही पहचाना जा सकता है |  इसमें भी मंगोल प्रजाति जिसका कद साधारण ,नाक साधारण और कम ऊंची ,चेहरे और शरीर पर बालों का अभाव , आँखे तिरछी या कम मोड़ वाली ,चेहरा चपटा और छोटा ,और रंग गहरे से हल्का भूरा होता है |  लम्बे सिर वाली ये प्रजाति उप हिमालय प्रदेश ,असम और म्यांमार की सीमा पर रहने वाले आदि लोगों नागा ,मीरी और बोंडों में सर्वाधिक पाई जाती है |  इस समूह की दूसरी प्रजाति चौड़े सिर वाली है बांग्लादेश में चिटगांव के पर्वतीय आदिवासी और कलिम्पोंग की लेप्चा प्रजाति इसी श्रेणी के है |  तिब्बती मंगोलायड लम्बे कद,चौड़ा सिर और हलके रंग के होते है , ये लोग तिब्बत की और से आये और सिक्किम में बसे , दूध ,चाय ,कागज ,चावल ,सुपारी की खेती ,सामूहिक घर की परंपरा ,सीढ़ीनुमा खेती इन्ही लोगो देन है | चौथा प्रकार द्रविड़ प्रजाति का है  इस प्रजाति की अनेक किस्मे है जो लम्बे सिर ,काला रंग और अपने कद द्वारा पहचानी जाती है |  इनमे प्रथम प्रकार दक्षिण भारत के तमिल और तेलगु ब्राह्मणो में सर्वाधिक मिलता है , भारतीय जनजातियों में नीग्रिटो ,द्रविड़ और मंगोल प्रजातियों के ही तत्व सर्वाधिक पाए जाते है , इस प्रजाति को ही सिंधु घाटी सभ्यता को जन्म देने का श्रेय है | पांचवी प्रजाति नार्डिक है जो भूमध्यसागर से ईरान होते हुए गंगा के मैदान में आये , उत्तरी भारत की जनसँख्या में सबसे अधिक यही तत्व पाया जाता है सामान्य अर्थ में हम इस प्रजाति को आर्य के रूप में जानते है |  ये प्रजाति पंजाब ,कश्मीर ,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के मराठा और केरल ,महाराष्ट्र और मालाबार के ब्राह्मण इसी प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते है |  ये प्रजाति मध्यम से लम्बा कद , संकरी नाक ,उन्नत दाढ़ी ,शरीर पर घने बाल ,काली या गहरी भूरी और खुली आंखे , लहरदार बाल और पतला शरीर लिए हुए है |  इस प्रजाति ने सिंधु घाटी सभ्यता को अपनाया और उसे उन्नत किया , वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति मुख्यत इन्ही लोगो द्वारा निर्मित है , इन्ही  में हम पूर्वी अथवा सेमेटिक प्रजाति को शामिल कर सकते है जो टर्की और अरब से आये , केवल नाक की बनावट को छोड़कर ये प्रजाति नार्डिक से मिलती जुलती है |  छठी प्रजाति मध्य एशियाई पर्वतो के पश्चिम से भारत में आयी चौड़े सिर वाली प्रजाति है जिसे एल्पोनायड ,दिनारिक और आर्मिनॉयड तीन भागो में बांटा गया है |  छोटा मध्यम कद ,चौड़े कंधे ,गहरी छाती ,लम्बी टांगे ,चौड़ी पर छोटी उंगलियां ,गोल चेहरा ,नाक पतली और नुकीली ,रंग भूमध्यसागरीय लोगो से हल्का ,शरीर मोटा और मजबूत और चेहरे तथा शरीर पर घने बाल इस प्रजाति के तत्व है ,संभवतया ये प्रजाति बलूचिस्तान से सिंध ,सौराष्ट्र और गुजरात होते हुए महाराष्ट्र और आगे तमिलनाडु ,कर्णाटक ,श्रीलंका और गंगा किनारे होते हुए बंगाल पहुंची |  सौराष्ट्र में काठी ,गुजरात में बनिया ,बंगाल में कायस्थ के साथ महाराष्ट्र ,कन्नड़ ,तमिलनाडु ,बिहार और गंगा के डेल्टा में पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी इस प्रजाति के तत्व पाए जाते है |                              किसी भी संस्कृति को उसके भाषाई इतिहास के बगैर नहीं जाना जा सकता ,भाषा ही वो एकमात्र जरिया है जो उस संस्कृति की सांस्कृतिक पहचान बताता है |  भारतीय भाषाई सर्वेक्षण के संपादक प्रियर्सन के अनुसार भारतीयों द्वारा करीब 180 भाषाएँ और 550 बोलियां बोली जाती है | इन्हे चार वर्गों एस्ट्रोएसियाटिक ,तिब्बती -बर्मी ,द्रविड़ और हिन्द -आर्य में बांटा गया है | एस्ट्रोएसियाटिक भाषाएँ प्राचीनतम है और सामान्यतया मुंडा बोली के कारण जानी जाती है इसे बोलने वाले पूर्व में ऑस्ट्रेलिया तक और पश्चिम में अफ्रीका के पूर्वी समुद्रतट के निकट मेडागास्कर तक पाए जाते है | विद्वानों के अनुसार लगभग 40 हजार ईस्वी पूर्व ऑस्ट्रियाई लोग ऑस्ट्रेलिया में आये और इसलिए संभव है ये लोग भारतीय उपमहादेश से होते हुए दक्षिणी पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया गए | ये भी कहा जा सकता है कि इस समय तक भाषा का अविष्कार हो चूका था | मुंडा भाषा झारखण्ड ,बिहार ,पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा में संथालियों द्वारा जो इस उपमहादेश की सबसे बड़ी जनजाति है द्वारा बोली जाती है | एस्ट्रोएसियाटिक की दूसरी शाखा मोन -खमेर है जो उत्तर पूर्वी भारत में मेघालय अंतर्गत खासी और जामितिया पहाड़ियों और निकोबारी द्वीपों में बोली जाती है | तिब्बती -बर्मी बोलने वालो की सख्या बहुत अधिक है  | भारत में त्रिपुरा ,असम ,मेघालय ,अरुणाचल प्रदेश ,नागालैंड ,मिजोरम ,मणिपुर और दार्जिलिंग में ये भाषा बोली जाती है |  द्रविड़ बोली का प्राचीनतम रूप भारतीय उपमहादेश के पाकिस्तान स्थित उत्तर पश्चिम में पाया जाता है | भाषा विज्ञानं के विद्वान इस भाषा की उत्पत्ति का श्रेय एलम अर्थात दक्षिणी पश्चिमी ईरान को देते है | इसकी तिथि चौथी सहस्त्राब्दी निर्धारित की गई है ब्रहुई इसके बाद का रूप है | ये अभी ईरान ,तुर्कमेनिस्तान ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सिंध और बलूचिस्तान और सिंध राज्यों में बोली जाती है | कहा जाता है कि द्रविड़ भाषा पाकिस्तानी क्षेत्र में होते हुए दक्षिणी भारत में पहुंची जहाँ इससे तमिल ,तेलगु ,कन्नड़ और मलयालम जैसी शाखाओ की उत्पत्ति हुई | झारखण्ड और मध्य भारत में बोली जाने वाली ओरांव अथवा कुरुख भाषा भी वस्तुत द्रविड़ ही है लेकिन ये मुख्यत ओरांव जनजाति द्वारा ही बोली जाती है | कहा जाता है कि हिन्द यूरोपीय परिवार की पूर्वी अथवा आर्य शाखा हिन्द -ईरानी ,दर्दी ,हिन्द -आर्य इन तीन उपशाखाओ में बंट गई | ईरानी जिसे हिन्द- ईरानी भी कहते है ईरान में बोली जाती है और इसका प्राचीनतम नमूना अवेस्ता नामक महाग्रंथ में मिलता है | दर्दी भाषा पूर्वी अफगानिस्तान ,उत्तरी पाकिस्तान और कश्मीर की है यद्यपि कई विद्वान् दर्दी को हिन्द -आर्य की उपशाखा मानते है | हिन्द आर्य भाषा पाकिस्तान ,भारत ,बांग्लादेश ,श्रीलंका और नेपाल में बहुसंख्यक लोगो द्वारा बोली जाती है | लगभग 500 हिन्द -आर्य भाषाएँ उत्तर और मध्य भारत में बोली जाती है | वैदिक संस्कृत प्राचीन हिन्द- आर्य भाषा के अंतर्गत है लगभग 500 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी तक मध्य हिन्द आर्य भाषाओँ के अंतर्गत प्राकृत ,पालि और अपभृंश भाषाएँ आती है | मुंडा और द्रविड़ भाषाओ के कई शब्द वैदिक संस्कृति के मूल ग्रन्थ ऋग्वेद में मिलते है |
 मिलते है पड़ाव के पांचवे दिन एक नयी चर्चा के साथ महेंद्र जैन 31 जनवरी 2019
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