ओ साथी!
जीवन एक रैन बसेरा,
फिर क्या तेरा, क्या मेरा,
दो पल हैं, थाम ले हाथ,
साथ चल, जीवन का मजा लें!
ब्रह्मरचित इस जग में,
विष्णुबगिया का आनंद लें,
रच-रज कर संसार में,
ज्ञान ज्योति का अंगार लें,
अग्रसर हो पूर्णता में,
शिव संगम में रम लें
जीवन एक रैन बसेरा,
फिर क्या तेरा, क्या मेरा,
दो पल हैं, थाम ले हाथ,
साथ चल, जीवन का मजा लें!
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अंतः मनन
जीवन के इस मोड़ पर,
मनन करता हूँ, संवाद करता हूँ|
बेफिक्री! तू क्यों खफा हो गयी है,
हमने तो जीवन भर साथ चलने का वादा किया था|
चिंता! तेरे से तो मेरा कोई नाता ही ना था,
क्यों सगी सी लगने लगी है|
नींद! तू तो टूटना जानती ही ना थी ,
क्यों बार बार अटकने लगी है|
मन करता है लौट चलूं,
बहुत याद आती है मुझे वो बेफिक्र चिंतारहित नींद|
संदीप सिंघई 22/07/2020
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जुदाई
तुम जो मिल गए तो,
दिल लगा रहा |
बस एहसास इतना कि करीब हो,
मन भरा रहा |
ख़ामोशी से! उड़ता हुआ देख तुम्हें,
मैं खुश होता रहा,
मचलता रहा,
अरमानों के आस्मां में,
पंछी उड़ाता रहा, खिलाता रहा |
मन ही मन!
तमन्नाओं की फसल,
जोतता रहा, काटता रहा |
हसरतों का एक स्वप्निल संसार,
बनाता रहा, सजाता रहा |
सोचता रहा!
कि शायद इस बेजुबां को समझ पाओगे तुम,
पर अंदाज ना था कि इतने जल्द जुदा हो जाओगे तुम |
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संवाद: ब्रह्म का ब्रह्मांश से
ब्रह्म हूँ, रचनाकार हूँ मैं,
सृष्टी का सृजक,
अद्वितीय शक्तियों का स्वामी,
ब्रह्मांड का प्रतिष्ठापक हूँ मैं |
और तुम हे मानव!
मेरे दिव्यांश,
मेरे अनंत सृजन पटल के एक बिंदुमात्र का अहम् किरदार,
जो पूर्णता से अनभिज्ञ है, अभिभूत है,
ज्ञानोपार्जन में रत, एक बुद्धिमान प्राणी |
आओ कुछ बातें करते हैं,
मन की बातें रखते हैं,
सुनो!
बड़ी आशा और उत्साह से रचा था मैंने,
आकाशगंगा मंदाकनी के सौर मंडल में,
वसुंधरा को, इस पृथ्वी को |
जीवनदायनी पंचतत्वों से सुशोभित कर,
रखी थी नींव समग्रता की, सम्पूर्णता की |
कुशलता से जीवनचक्र को सृजित कर ,
रखी थी बुनियाद वनस्पति एवं जंतुओं के सह्चरण की|
हे मानव! जरा मनन करो,
पारितंत्र के भिन्न-भिन्न घटक,
जब कर रहे हैं अपना कर्म,
निभा रहे हैं अपनी मर्यादा,
और रह रहे हैं अपनी सीमाओं में,
तुम!
जिसे दिया है मैंने वृहद पटल,
क्या कर रहे हो और किस ओर जा रहे हो?
आखिर चाहते क्या हो?
ध्यान रखो,
बारम्बार सजग करता रहता हूँ मैं तुम्हें,
लघु विध्वंस कर,
दर्द देकर, रोग देकर,
कंपन कर, विषाणु भेजकर |
जाग जाओ, संभल जाओ,
कहीं खिन्न ही ना हो जाऊं मैं,
पुनर्रचना का ध्येय कर,
विनाशक बन, महेश रूप धर,
नवोनिर्माण में ना रत हो जाऊं मैं |
संदीप सिंघई 05/05/2020
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कोरोना
प्रकृति का यह दूत - कोरोना,
लाया है माँ का एक सन्देश,
कह रहा -
दो पल थम जा, ऐ मानव,
जरा मुझे भी सांस ले लेने दे |
माँ हूँ मैं तेरी,
कर्त्तव्य है मेरा तुझे संवारना,
पर ऐ मेरी जान,
जरा मुझे भी तो जी लेने दे |
माना तू है मेरा सबसे दुलारा,
देती हूँ तुझे माखन सबसे न्यारा,
पर जरा अपने सहचरों को भी तो उड़ लेने दे,
विचर लेने दे |
तत्त्व पांच जो मैंने दिए हैं सबके लिए,
जरा उनको भी पुनर्जागृत हो लेने दे |
अपनी अंधी दौड़ में,
जो तूने बिगाड़ा है मेरा संतुलन,
कहीं गिर ही ना जाऊं मैं,
जरा मुझे संभल लेने दे |
दो पल थम जा, ऐ मानव,
जरा मुझे भी सांस ले लेने दे |
संदीप सिंघई 27/04/2020
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क्या खोया, क्या पाया और क्या पाना है|
गुज़र गए जीवन के चार दशक,
क्या खोया, क्या पाया,
क्या विचारा और क्या अजमाया|
खोया बचपन, अनुभव पाया,
अगाध हसरतों के समंदर से निकल,
अपना एक मुकाम बना पाया|
छोटी छोटी तमन्नाओं को बुनकर,
एक स्वप्निल चादर संजो पाया|
क्या खोया.....
खोया लड़कपन, ओहदा पाया,
सफ़र में कई किरदारों से मिल,
अपनों को मैं खोज पाया|
मोतियों सम रत्नों को बुनकर,
माला के सामान परिवार संजो पाया|
क्या खोया.....
खोया अल्ह्हड़ मन, जिम्मेदार बन पाया,
जिंदगी की जद्दोजहद के बीच,
दुनिया को कुछ दे पाया|
ज्ञान और जिज्ञासा को पिरोकर,
संसार में कुछ अल्हदा कर पाया|
क्या खोया.....
पहुंचकर जीवन के इस मुकाम पर, विचार करता हूँ कि
क्या खोया, क्या पाया
और पाता हूँ कि सफ़र जारी है,
नींव के पत्थरों पर मजबूत मीनार बनाना है,
जो पाया है अब तक उसे कोहेनूर बनाना है|
अपने सार्थक प्रयासों से अनवरत आगे जाना है,
दरिया की अविरलता को यथार्थ में अपनाना है|
क्योंकि
ब्रह्मांड अनंत है,
ज्ञान अनंत है,
विचार-गंभीर्य अनंत है,
प्रकाश अनंत है
परन्तु विराम अंत है|
और इसलिए
हर मुकाम पर विचार करते हुए,
निरंतर आगे बढ़ते जाना हैं|
नवीनता को अपनाते हुए,
ज्ञान धारा को पोषित करते जाना है|
आगे, आगे और आगे बढ़ते जाना है|
संदीप सिंघई 19/09/2019
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बिदाई
वक्त दौड़ रहा, भविष्य की ओर जा रहा है,
हम भी आगे बढ रहे हैं, चले जा रहे हैं!
नूतन पटल पर क्या होगा मेरा किरदार,
लगता है वह जमीं खोजने का वक्त आ गया है!
संशय में हूँ!
व्यवस्था परिवर्तन के इस दौर में,
जहॉ हर ओर आभासियत का बोलबाला है,
ईश्वर की ठेठ रचना का रूपक मैं,
किस ओर चलूं, क्या करूं!
सोचता हूँ!
वक्त आ गया है....
अंत: अभिरूप को पुनर्जागृत कर मार्गदर्शन करने का!
मार्गदर्शक बन व्यवस्था को पोषित करने का....
उंगली पकड़कर चलाया था जिन्हें,
उन्हें उड़ता हुआ देख शाबाशी देकर आगे बढ़ाने का...
अनुभव की गाथाओं को,
मोती सम पिरोकर नये सपने दिखाने का...
अनुचरों की स्मृतियों और लेखनी में कालजयी बन,
अमृत गाथा सम स्थापन्न होने का...
रचनाकार की कृतिपुंज में समाहित हो,
सम्पूर्ण होने का!
संदीप सिंघई 01/01/2020
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